तिब्बती लोगों को वास्तविक स्वायत्तता देने के लिए झापन
1. परिचय
साल 2002 में चीन जनवादी गणतंत्र (पीआरसी) की केंद्रीय सरकार के साथ सीधा संपर्क नए सिरे से कायम होने के बाद परम पावन चौदहवें दलाई लामा के दूतों और केंद्रीय सरकार के प्रतिनिधियों के बीच गहन चर्चा हुई। इन चर्चाओं में हमने तिब्बतियों की आकांक्षाओं को स्पष्ट रूप से सामने रखा। मध्यम मार्ग नीति का सार यह है कि चीन के संविधान के भीतर ही तिब्बती लोगों के वास्तविक स्वायत्तता सुनिशिचत हो सके। यह तिब्बती और चीनी, दोनों जनता के परस्पर हित में है और दोनों के दीर्घकालिक हितों पर आधारित है। हम इस बात पर दृढ़ हैं कि हम चीन से अलगाव या आज़ादी नहीं चाहते। हम वास्तविक स्वायत्तता के द्वारा तिब्बत की समस्या का ऐसा हल चाहते हैं जो चीन जनवादी गणतंत्र के संविधान में दिए गए स्वायत्तता के सिद्धांतों के अनुरूप हो। तिब्बत की विशिष्ट पहचान के सभी पहलुओं का संरक्षण एवं विकास पूरे मानवता के वृहत हित में है, खासकर तिब्बती और चीनी जनता के।
बीजिंग में 1 और 2 जुलाई, 2008 को आयोजित वार्ता के सातवें दौर में चीन की पीपुल्स पॉलिटिकल कंसल्टेटिव कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष और सेंट्रल यूनाइटेड फ्रंट वर्क डिपार्ट मेंट के मंत्री श्री डयू क्विंगलिन ने तिब्बत में स्थिरता और विकास के लिए खुलकर परम पावन दलाई लामा के सुझाव मांगे थे। सेंट्रेल यूनाइटेड फ्रंट वर्क डिपार्टमेंट के कार्यकारी उप मंत्री श्री झू विकुन ने कहा था कि हम जिस तरह की स्वायत्तता चाहते हैं उसके स्वरूप या उसकी मात्रा के बारे में, साथ ही चीन के संविधान के दायरे में क्षेत्रीय स्वायत्तता के सभी पहलुओं के बारे में वे हमारे विचार जानना चाहते हैं।
इसके अनुसार ही यह झापन वास्तविक स्वायत्तता के बारे में हमारी राय को सामने रखता है और यह भी बताया है कि किस प्रकार स्वायत्ता और स्वशासन की तिब्बती राष्ट्रीयता की विशिष्ट जरूरतों को चीन जनवादी गणतंत्र के संविधान में निहित स्वायत्ता के सिद्धांतों को लागू कर के ही पूरा किया जा सकता है, जहां तक हमने समझा है। इस आधार पर परम पावन दलाई लामा को पूरा भरोसा है कि चीन के भीतर ही वास्तविक स्वायत्तता देकर तिब्बती राष्ट्रीयता की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है।
चीन जनवादी गणतंत्र एक बहुराष्ट्रीयता वाला देश है और जैसा कि दुनिया के अन्य हिस्सों में होता है, चीन भी राष्ट्रीयता और अल्पसंख्यक नागरिकता के सवालों को स्वायत्तता और स्वशासन के द्वारा हल करना चाहता है। चीन के संविधान में स्वायत्तता और स्वशासन के बुनियादी सिद्धांतों को शामिल किया गया है, जिनका लक्ष्य तिब्बती जरूरतों और आकांक्षाओं के अनुरूप है। हान अंध देशभक्ति और स्थानीय राष्ट्रीयता दोनों को खारिज करते हुए दमन और राष्ट्रीयता के अलगाव दोनों का विरोध करते हुए क्षेक्षीय राष्ट्रीय स्वायत्तता को पूरा किया जाना है। इसका इरादा अल्पसंख्यक नागरिकता को खुद अपने मामलों का स्वामी बनने की ताकत प्रदान करके उनकी संस्कृति औऱ पहचान की रक्षा करना है। जहां तक हम समझते हैं काफी हद तक तिब्बती जरूरतों को स्वायत्तता के संवौधानिक सिद्धांतों के भीतर ही पूरा किया जा सकता है। कई बिंदुओं पर संविधान में राज्य के अंगों को निर्णय लेने और स्वायत्तता की व्यवस्था के संचालन के लिए काफी विवेकाधीन शक्तियां दी गई है। इन विवेकाधीन ताकतों का इस्तेमाल तिब्बतियों के लिए वास्तविक स्वायत्तता को इस तरीके से सुगम बनाने के लिए किया जा सकता है कि जो तिब्बत की विशिष्टता के अनुकूल हो। इन सिद्धांतों को लागू करने के लिए स्वायत्तता से जुड़े कानूनों की समीक्षा की जा सकती है या उनमें बदलाव किया जा सकता है ताकि वे तिब्बती राष्ट्रीयता के विशिष्ट लक्षणों और जरूरतों के अनुरूप हों। दोनों पक्षों की भलाई के लिए अनसुलझे मुद्दों को स्वायत्तता के संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर सुलझाए जा सकते हैं। इस तरीके से राष्ट्रीय एकता और स्थिरता और तिब्बती एवं अन्य राष्ट्रीयताओं के बीच शांतिपूर्ण संबंध कायम किया जा सकता है।
2. तिब्बती राष्ट्रीयता की अखंडता एवं सम्पूर्णता के लिए सम्मान
वर्तमान प्रशासनिक विभाजनों के बावजूद तिब्बती एक अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता से जुड़े है। तिब्बतियों के राष्ट्रीयता के इस अखंडता का सम्मान निशिचत रूप से होना चाहिए। क्षेत्रीय स्वायत्तता की राष्ट्रीय संवैधानिक अवधारण और साथ ही साथ राष्ट्रीयताओं की समानता के सिद्धांत में भी यही भावना, उद्देशय और तत्व निहित है।
इस तथ्य के बारे में कोई विवाद नहीं है कि सभी तिब्बतियों की भाषा, संस्कृति, आध्यात्मिक परंपराएं, प्रमुख मूल्य एवं रीति-रिवाज एक हैं, वे एक जातीय समूह से जुड़े हैं और उनके बीच साझा पहचान की प्रबल चेतना है। तिब्बतियों का एक साझा इतिहास है और राजनीतिक या प्रशासनिक विभाजनों के कई दौर के बावजूद तिब्बती अपने धर्म, संस्कृति, शिक्षा, भाषा, जीवनचर्या और अपने विशिष्ट ऊंचे पठारी पर्यावरण के माध्यम से लगातार संगठित बने हुए हैं। तिब्बती नागरिकता तिब्बती पठार के एक आपस में जुड़े हुए क्षेत्र में निवास करती है, इस क्षेत्र में वे हजारों साल से निवास कर रहे हैं और इसलिए वे देशज कहे जाते हैं।
राष्ट्रीय क्षेत्रीय स्वायत्तता के संवैधानिक सिद्धांतों के लिहाज से भी देखें तो वास्तव में चीन जनवादी गणतंत्र में रहने वाले सभी तिब्बती समूचे तिब्बती पठार पर एक रनागरिकता के रूप में हैं। इन वजहों से ही चीन ने तिब्बती नागरिकता को 55 अल्पसंख्यक नागरिकताओं में से एक माना है।
3. तिब्बती आकांक्षाएं
तिब्बतियों की एक समृद्ध और अलग इतिहास, संस्कृति एवं आध्यात्मिक परंपराएं हैं ओर ये सब मानवता के विरासत के कीमती हिस्से हैं।
तिब्बती अपने ह्थय में संजोए हुए अपने विरासत का न केवल संरक्षण करना चाहते हैं, बल्कि वे अपनी संस्कृति, आध्यात्मिक जीवन और जानकारियों का इस तरीके से और विकास करना चाहते हैं जो खासतौर पर 21 वीं शताब्दी में मानवता की जरूरतों और दशाओं के अनुकूल हो।
एक बहुराष्ट्रीय देश चीन जनवादी गणतंत्र के एक हिस्से के रूप में तिब्बती वहां हो रहे तेज आर्थिक एवं सामाजिक विकास का अच्छी तरह से फायदा उठा सकते हैं। हम इस विकास में साक्रियता से भागीदारी एवं योगदान करना चाहते हैं, साथ ही यह सुनिशिचत करना चाहते हैं कि यह सब तिब्बती पहचान, संस्कृति और प्रमुख मूल्यों को खत्म किए बिना हो और उस तिब्बती पठार के नाजुक पर्य़ावरण के विनाश के बिना हो जो तिब्बतियों की भूमि है।
तिब्बत की परिस्थिति की विशिष्टता को चीन में लगातार स्वीकार किया जाता रहा है और 17 बिंदु समझौते और चीन के नेताओं के बयानों एवं नीतियों से भी यह प्रकट होता रहा है। इसलिए इस विशिष्टता को ही चीन जनवादी गणतंत्र के भीतर तिब्बती नागरिकता को दिए जाने वाले विशिष्ट स्वायत्तता की पहुंच और उसका ढांचा परिभाषित करने का आधार बनाना चाहिए। संविधान में यह बुनियादी सिद्धांत प्रतिबिंबित है कि खास परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए लचीलापन दिखाया जाएं, इनमें अल्पसंख्यक नागरिकताओं की जरूरतें और विशिष्ट लक्षण भी शामिल हैं।
इसलिए हम चीन की क्षेत्रीय अखंडता का पूरा सम्मान करने के लिए प्रतिबद्ध तो हैं हीं, साथ ही यह उम्मीद करते हैं कि केंद्र सरकार तिब्बती नागरिकता की एकता और चीन जनवादी गणतंत्र के भीतर वास्तविक स्वायत्तता हासिल करने के उसके अधिकार को मान्यता दे और उसका पूरा सम्मान करे।
हम मानते हैं कि हमारे बीच के मतभेदों को दूर करने का यही आधार है और इससे विभिन्न नारिकताओं के बीच एकता, स्थिरता और सामजंस्य कायम किया जा सकता है।
तिब्बती यदि चीन के भीतर एक विशिष्ट नागरिकता के रूप में आगे बढ़ना चाहते हैं तो उन्हें इस तरह से आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक तरक्की और विकास करना होगा जो चीन और पूरी दुनिया में हुए विकास से मेल खा सके। साथ ही, उन्हें इस प्रकार के विकास के लिए तिब्बती विशिष्टताओं का सम्मान और पोषण भी करना होगा। ऐसा होने के लिए यह जरूरी है कि स्वयं पर शासन के तिब्बतियों के अधिकार को मान्यता दी जाए और इसे तिब्बती नागरिकता की अपनी जरूरतों, प्राथमिकताओं और विशिष्टताओं के अनुसार उस पूरे क्षेत्र में लागू किया जाए जहां वे एक सघन समुदाय के रूप में निवास करते हैं। तिब्बती संस्कृति एवं पहचान का संरक्षण और संवर्द्धन तिब्बती जनता ही कर सकती है, कोई और नहीं।
इसलिए तिब्बतियों को अपनी सहायता, अपना विकास करने और खुद शासन चलाने में सक्षम होना चाहिए। इन सबके और तिब्बत के लिए केंद्रीय सरकार और अन्य प्रांतों के जरूरी मार्गदर्शन एवं सहायता के बीच अच्छा संतुलन कायम करने की जरूरत होगी।
चीन जनवादी गणतंत्र के भीतर ही तिब्बती नागरिकों की समस्याओं का हल तलाशने की परम पावन दलाई लामा की प्रतिबद्धता साफ और सुस्पष्ट है। उनका यह नजरिया सर्वोच्च नेता डेंग जियोपिंग के उस बयान के भी पूरी तरह अनुकूल और मानने वाला है जिसमें उन्होंने जोर दिया था कि स्वतंत्रता के अलावा अन्य सभी मसलों को बातचीत के द्वारा हल किया जा सकता है।
4. तिब्बतियों की बुनियादी जरूरतें (स्वशासन के विषय)
1) भाषा
तिब्बत जनता की पहचान के लिए भाषा सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। तिब्बती भाषा संचार का प्राथमिक साधन है, इस भाषा में ही उनका साहित्य, उनके आध्यात्मिक ग्रंथ और ऐतिहासिक एवं वैझानिक कार्य़ लिखित हैं। व्याकरण की दृष्टि से तिब्बती भाषा न सिर्फ संस्कृति जैसी उच्च स्तर की है, बल्कि यह एकमात्र ऐसी भाषा है जिसका संस्कृत से अनुवाद लेशमात्र भी गलती के बिना किया जाता है। इसलिए तिब्बती भाषा में न केवल सबसे समृद्ध और सबसे अच्छी तरह अनुवाद होने वाले साहित्य रचे गए हैं, बल्कि कई विद्वानों का तो यह भी कहना है कि इसमें सबसे समृद्ध और सबसे ज्यादा साहित्यिक रचनाएं की गई हैं। चीन के संविधान की धारा 4 में सभी नागरिकताओं को इस बात की आजादी होगी। तिब्बती यदि अपनी भाषा का उपयोग एवं विकास करना चाहते हैं तो उन्हें चीन में बोली और लिखी जाने वाली मुख्य भाषा का भी सम्मान करना होगा।
संविधान की धारा 121 में इस सिद्धांत को व्यापक तौर पर मान्यता दी गई है, राष्ट्रीय स्वायत्त क्षेत्र के अंगों को स्थानीय तौर पर आम तौर पर बोली या लिखी जाने वाली भाषा को लागू करना होगा।
क्षेत्रीय राष्ट्रीय स्वायत्तता पर कानून (एलआरएनए) की धारा 10 में कहा गया है कि इन अंगों को, अपने क्षेत्र के नागरिकों को अपनी बोली और लिखी जाने वाली भाषा के उपयोग और विकास का अवसर देना चाहिए।
तिब्बती क्षेत्र में तिब्बती भाषा को मुख्य भाषा के रूप में मान्यता देने के सिद्धांत के साथ ही एलआरएनए (धारा 36) स्वायत्त सरकार के अधिकारियों को यह निर्णय करने का अधिकार देता है कि शिक्षा से संबंधित निर्देशों और नामांकन प्रक्रिया में कौन सी भाषा का इस्तेमाल किया जाएगा, इसका निर्णय वे करें।
इससे इस सिद्धांत को मान्यता मिलती है कि शिक्षा का प्रमुख माध्यम तिब्बती होगा।
2) संस्कृति
क्षेत्रीय स्वायत्तता की राष्ट्रीय अवधारणा प्राथमिक रूप से अल्पसंख्यक नागरिकताओं की संस्कृति के संरक्षण के लिए बनायी गयी है। इसलिए चीन जनवादी गणतंत्र के संविधान की धारा 22, 47 एवं 119 और साथ ही एलआरएनए की धारा 38 में संस्कृति के संरक्षण की बात की गयी है। हम तिब्बतियों के लिए तिब्बती संस्कृति हमारे धर्म, परंपरा, भाषा और पहचान से गहराई से जुड़ी हुई है और इस सबको विभिन्न स्तरों पर खतरे का सामना करना पड़ रहा है। तिब्बती जनता चीन जनवादी गणतंत्र के बहुराष्ट्रीय राज्य के भीतर निवास करती है इसलिए अलग तरह की तिब्बती सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण समुचित संवैधानिक प्रावधानों के द्वारा करने की जरूरत है।
3) धर्म
धर्म तिब्बतियों की बुनियाद है और बौद्ध धर्म उनकी पहचान से गहराई से जुड़ा है। हम इस बात के महत्व को स्वीकार करते हैं कि धर्म को राज्य से अलग रखना चाहिए, लेकिन इससे हमारी स्वतंत्रता और धर्म को माने वालों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। धार्मिक विशवास, अंतःकरण और धर्म की स्वतंत्रता के बिना तिब्बती व्यक्तिगत या सामुदायिक स्वतंत्रता की कल्पना भी नहीं कर सकते। संविधान में धर्म की महत्ता को स्वीकार किया गया है और इसे खुलकर अपनाने वालों का भू संरक्षण किया गया है।
संविधान की धारा 36 के द्वारा सभी नागरिकों को धार्मिक विशवास के स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी दी गई है। कोई भी किसी को इस बात के लिए मजबूर नहीं कर सकता कि वह किसी धर्म में विशवास करे या न करे। धर्म के आधार पर किसी तरह का भेदभाव वर्जित है।
अंतरराष्ट्रीय मानकों के आलोक में संवैधानिक सिद्धांतों की व्याख्या में भी विशवास या पूजा के तरीके की स्वतंत्रता की बात कही गई है। इस स्वतंत्रता के तहत बौद्ध मठों की परंपरा के अनुसार मठों की स्थापना और संचालन, शिक्षण और अध्ययन कार्य करना, इन नियमों के आधार पर कितनी भी संख्या में या किसी भी आयु के भिक्षुओं और ननों की भर्ती करना आदि शामिल हैं। इस स्वतंत्रता के तहत ही सार्वजनिक रूप से प्रवचन की सामान्य परंपरा और बड़े पैमाने पर भीड़ जुटाने के अधिकार की भी रक्षा होती है। इसलिए राज्य को किसी गुरू और शिष्य के बीच संबंध, मठों से जुड़ी संस्थाओं के प्रबंधन और पुनर्जन्म को मान्यता जैसी धार्मिक प्रचलन एवं परंपराओं में दखल नहीं देना चाहिए।
4) शिक्षा
तिब्बती लोग केंद्रीय सरकार के शिक्षा मंत्रालय के साथ सहयोग एवं समन्वय के द्वारा खुद की शिक्षा प्रणाली का विकास और प्रबंधन करना चाहते हैं और उनकी इस इच्छा का समर्थन संविधान में निहित शिक्षा से जुड़े सिद्धांतों में भी किया गया है। इसी प्रकार विझान एवं प्रौद्योगिकी के विकास में लगने या उसमें योगदान करने का भी समर्थन किया गया है। हमने यह देखा है कि बौद्ध मनोविझान, मेटाफिजिक्स, ब्रह्मांड विझान और मस्तिष्क की समझ ने आधुनिक विझान को विकसित होने में जो योगदान किया है उसकी अंतरराष्ट्रीय वैझानिक विकास में मान्यता बढ़ती जा रही है।
संविधान की धारा 19 के तहत राज्य अपने सभी नागरिकों को शिक्षा उपलब्ध करने की पूरी जिम्मेदारी लेता है, तो धारा 119 इस सिद्धांत को मान्यता प्रदान करता है कि, राष्ट्रीय स्वायत्तशासी क्षेत्रों की स्वायत्त सरकार अपने क्षेत्रों में शैक्षणिक मामलों को स्वतंत्र तरीके से प्रबंधित कर सकती है।
एलआरएन की धारा 36 में भी यह सिद्धांत प्रदर्शित होता है।
हालांकि निर्णय लेने के मामले में किस हद तक स्वायत्तता होगी यह साफ नहीं है, लेकिन मुख्य बात यह है कि तिब्बतियों को अपनी राष्ट्रीयता के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने में वास्तविक स्वायत्तता मिले और संविधान में स्वायत्तता के सिद्धांतों में भी इसका समर्थन किया गया है।
जहां तक विझान एवं प्रौद्योगिकी के विकास में योगदान करने की आकांक्षा की बात है, संविधान की धारा 119 और एलआरएन की धारा 39 में साफ तौर पर इस बात को मान्यता दी गई है कि स्वायत्तशासी क्षेत्रों के लोग विझान एवं प्रौद्योगिकी का विकास कर सकते हैं।
5) पर्यावरण संरक्षण
तिब्बत एशिया की महान नदियों का मुख्य स्रोत है। वहां पृथ्वी की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं हैं, साथ ही साथ दुनिया का सबसे विशाल और सबसे ऊंचा पठार भी है। तिब्बत देश प्रचुर खनिज संसाधनों, प्राचीन वनों और कई ऐसी गहरी घाटियों से भरा पड़ा है जो मानवीय हलचलों से दूर है।
पर्यावरण संरक्षण का यह प्रचलन तिब्बती लोगों के जीवन के सभी रूपों में निहित पर्य़ावरण के प्रति सम्मान की परंपरा से बढ़ता रहा है, जिसमें सभी प्राणियों को नुकसान पहुंचाना वर्जित है, जाहे वह मनुष्य हो या जानवर। तिब्बत को एक विशिष्ट प्राकृतिक पर्यावरण में अछूते सुनसान अभयारण्य के रूप में देखा जाता था।
आज तिब्बत के परंपरागत पर्य़ावरण को इस तरह का नुकसान पहुंचाया जा रहा है कि जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। इन सबका प्रभाव खासतौर से मैदानों, फसली खेतों, जंगलों, जल संसाधनों और वन्यजीवन में देखा जा सकता है।
यह सब देखते हुए एनएनआर की धारा 45 और 66 के अनुसार तिब्बती लोगों को अपने पर्य़ावरण पर अधिकार मिलना चाहिए और उन्हें इस बात की इजाजत देनी चाहिए वे पर्य़ावरण संरक्षण के अपने पारंपरिक चलन को जारी रख सकें।
6) प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग
प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण एवं प्रबंधन और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के बारे में संविधान और एलआऱएन में स्वायत्तशासी सरकार के अंगों की केवल सीमित भूमिका को ही स्वीकार किया गया है (एलआरएन की धारा 27, 28, 45, 66 और संविधान की धारा 118 देखें जिसमें यह वायदा किया गया है कि राज्य को स्वायत्तशासी क्षेत्रों के हितों का ध्यान रखना चाहिए)।
स्वायत्तशासी क्षेत्र द्वारा वनों और घास के मैदानों के संरक्षण एवं विकास के महत्व को एलआरएनए में मान्यता दी गई है (धारा 27) और कहा गया है कि स्थानीय प्रशासन जिन प्राकृतिक संसाधनों का राज्य की योजनाओं और कानूनी नियमों के दायरे में ही किया जा सकता है। वास्तव में इन मामलों में राज्य की केंद्रीय भूमिका को संविधान में भी प्रकट (धारा 9) किया गया है।
हमारा मानना है कि संविधान में स्वायत्तता के जिन सिद्धातों को जगह दी गई है उनके बल पर वास्तव में तिब्बती अपने भाग्य के नियंता खुद नहीं बन सकते जब तक कि उन्हें खनिज संसाधनों, जल, वनों, पर्वतों, घास के मैदानों आदि के उपयोग के मामले में निर्णय लेने की प्रक्रिया में पूरी तरह शामिल नहीं किया जाता।
प्राकृतिक संसाधनों और किसी अर्थव्यवस्था के लिए करों एवं राजस्व का विकास इसी बुनियाद पर हो सकता है कि जमीन का मालिकाना हक मिले। इसलिए यह जरूरी है कि किसी जमीन के हस्तांतरण या लीज पर देने का कानूनी अधिकार सिर्फ स्वायत्तशासी क्षेत्र की राष्ट्रीयता वाले नागरिकों को मिले, सिवाय उन मामलों के जब जमीन राज्य की हो। इसी प्रकार केंद्र सरकार की योजनाओं के अनुरूप ही स्वायत्तशासी क्षेत्र में भी ऐसे स्वतंत्र प्राधिकरण होने चाहिए जो विकास योजना तैयार एवं लागू कर सकें।
7) आर्थिक विकास और व्यापार
तिब्बत में आर्थिक विकास का स्वागत किया जाना चाहिए और यह बहुत जरूरी है। चीन जनवादी गणतंत्र के भीतर तिब्बती जनता आर्थिक रूप से सबसे पिछड़े वर्गों में से है। संविधान में इस सिद्धांत को मान्यता दी गई है कि स्थानीय लक्षणों और जरूरतों को देखते हुए स्वायत्तशासी प्रशासन को अपने क्षेत्रों के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी (संविधान की धारा 118, एलआरएन की धारा 25 में भी यही संकेत)। संविधान में वित्तीय मामलों के प्रशासन और प्रबंधन के मामले में भी स्वायत्तता के सिद्धांत को मान्यता दी गई है (धारा 117और एलआरएन की धारा 32) । संविधान स्वायत्तशासी क्षेत्र में तेज विकास के लिए केंद्र सरकार द्वारा फंड देने और सहयोग करने के महत्व को भी प्रकट करता है (धारा 122, एलआरएन की धारा 22)।
इसी प्रकार एलआरएन की धारा 31 में स्वायत्तशासी क्षेत्रों, खासकर तिब्बत जैसे क्षेत्रों की इस क्षमता को मान्यता दी गई है कि वे सीमा व्यापार और साथ ही पड़ोसी देशों के साथ व्यापार कर सकें। इन सिद्धांतो को मान्यता तिब्बती राष्ट्रीयता के लिए काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह क्षेत्र कई देशों से सटा हुआ है और उन देशों के लोगों के साथ इसके सांस्कृतिक, धार्मिक, नस्लीय और आर्थिक जुड़ाव हैं।
केंद्र सरकारों और प्रांतों द्वारा दिए जाने वाले सहयोग का फायदा अस्थायी ही होगा, लेकिन दीर्घकालिक तौर पर यदि तिब्बती लोग आत्मनिर्भर नहीं होंगे और दूसरों पर ही निर्भर रहेंगे तो इसका बहुत नुकसान होगा। इस प्रकार स्वायत्तता का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य यह भी है कि तिब्बती लोगों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाए।
8) जन स्वास्थ्य
संविधान में कहा गया है कि नागरिकों को स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाएं देने की जिम्मेदारी राज्य की होगी (धारा 21) । धारा 119 में कहा गया है कि यह स्वायत्तशासी क्षेत्र की भी जिम्मेदारी होगी।
एलआऱएनए की धारा 40 में यह भी कहा गया है कि स्वायत्तशासी क्षेत्र में स्वशासन के अंगों को स्थानीय चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के विकास और आधुनिक एवं राष्ट्रीयताओं के पारंपरिक, दोनों तरह की औषधियों के विकास के लिए योजना बनाने हेतु निर्णय लेने की आजादी होगी।
तिब्बत में जो स्वास्थ्य व्यवस्था फिलहाल मौजूद है वह ग्रामीण जनसंख्या की जरूरतों को समुचित रूप से पूरा कर पाने में नाकाम रही है। उपरोक्त वर्णित कानूनों के सिद्धांतों के अनुसार क्षेत्रीय स्वायत्तशासी विभागों में इतनी क्षमता और संसाधन होने चाहिए कि वे समूची तिब्बती जनसंख्या की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा कर सकें। उन्हें इसमें भी सक्षम होना चाहिए कि पूरी तरह पारंपरिक प्रचलन के अनुसार पारंपरिक तिब्बती चिकित्सा और एस्ट्रो प्रणाली का विकास कर सकें।
9) जन सुरक्षा
जन सुरक्षा के मामलें में यह महत्वपूर्ण है कि सुरक्षा कर्मियों का बहुसंख्यक हिस्सा स्थानीय समुदाय से हो जो स्थानीय रीति-रिवाजों और परंपराओं से वाकिफ हो और उनका सम्मान करता हो। तिब्बती क्षेत्र में हालत यह है कि निर्णय लेने वाले अधिकार स्थानीय तिब्बतियों के हाथ में नहीं है।
स्वायत्तता और स्वशासन का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि स्वायत्तशासी क्षेत्रों में आंतरिक नागरिक व्यवस्था और सुरक्षा की जिम्मेदारी ली जाए। संविधान की धारा 120 और एलआरएन की धारा 24 में इस बात का महत्व स्वीकार किया गया है कि “राज्य की सैनिक व्यवस्था, व्यावहारिक जरूरतों और राज्य परिषद की मंजूरी के साथ” सुरक्षा व्यवस्था में स्थानीय भागीदारी हो और स्वायत्त क्षेत्र को प्राधिकार दिया जाए।
10) जनसंख्या के हस्तांतरण संबंधी नियम
राष्ट्रीय क्षेत्रीय स्वायत्तता और स्वशासन का बुनियादी लक्ष्य अल्पसंख्यक पहचान, संस्कृति, भाषा और अन्य जुड़ी चीजों की पहचान का संरक्षण करना और यह सुनिशिचत करना है कि ये लोग अपने मामलों के मालिक हों। जब किसी ऐसे खास क्षेत्र में राष्ट्रीय क्षेत्रीय स्वायत्तता की व्यवस्था लागू की जाती है जहां अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता के लोग एक संकेंद्रित समुदाय या समुदायों के रूप में रहते हैं तो मूल सिद्धांत और उद्देशय का ही अनादर होगा यदि बड़े पैमाने पर वहां बहुसंख्यक हान राष्ट्रीयता और अन्य राष्ट्रीयताओं के स्थानांतरण और बसने को प्रोत्साहित किया जाता है या उसकी इजाजत दी जाती है। इस प्रकार के स्थानांतरण से जो बड़े जनसांख्यिकीय बदलाव होते हैं उससे तिब्बती राष्ट्रीयता के हान राष्ट्रीयता से एकीकरण की जगह अलगाव को ही बढ़ावा मिलेगा और धीरे-धीरे तिब्बती राष्ट्रीयता की विशिष्ट संस्कृति एवं पहचान का लोप हो जाएगा।
साथ ही, तिब्बती क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हान और अन्य राष्ट्रीयताओं के लोगों के अंतर्प्रवाह से क्षेत्रीय स्वायत्ता की व्यवस्था को लागू करने के लिए जरूरी शर्तों में बुनियादी बदलाव आ जाएगा। जनस्ख्या के भारी हस्तांतरण और आवाजादी से स्वायत्तता हासिल करने का यह संवैधानिक मानदंड भी खत्म हो जाएगा कि ऐसा क्षेत्र जहां अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता “सघन समुदाय” के रूप में रहती हो। यदि इस प्रकार के आव्रजन और बस्तियों पर नियंत्रण नहीं किया गया तो तिब्बती लोग बहुत दिनों तक एक सघन समुदाय या समुदायों के रूप में नहीं रह पाएंगे और तब उन्हें संविधान के तहत राष्ट्रीय क्षेत्रीय स्वायत्तता का भी लाभ नहीं मिल पाएगा। इससे राष्ट्रीयता के मसले पर रवैए के मामले में संविधान के मूल सिद्धांतों का प्रभावी तौर पर उल्लंघन होगा।
चीन जनवादी गणतंत्र में पहले यह उदाहरण देखे गए हैं कि नागरिकों के कहीं बसने या उनकी आवाजाही पर प्रतिबंध लगाया गया है। लेकिन स्वायत्तशासी क्षेत्रों के इस अधिकार को बहुत कम स्वीकार किया गया है कि इन क्षेत्रों में “अस्थायी जनसंख्या” के बसने पर नियंत्रण के लिए वह कोई उपाय कर सकें।
हमारे लिए यह काफी महत्वपूर्ण होगा कि स्वशासन के स्वायत्त अंगों को ऐसे व्यक्तियों के आवास, बस्ती बनाने और रोजगर एवं आर्थिक गतिविधियों में लगने के मामलों को विनियमित करने का अधिकार हो जो चीन के अन्य हिस्सों से तिब्बती क्षेत्र में जाना चाहते हैं ताकि यह सुनिशिचत हो सके कि स्वायत्तता के सिद्धांतों का लक्ष्य व्यावहारिक सूप से पूरा हो।
हमारा इरादा यह नहीं है कि तिब्बत में स्थायी तौर पर बस चुके उन गैर तिब्बतियों को बाहर निकालने का नहीं है जो काफी समय से वहां रह रहे हैं और वहीं पले-बढ़े हैं। हमारी चिंता तिब्बत के कई क्षेत्रों में मुख्यतःहान और कई अन्य राष्ट्रीयताओं के लोगों के भारी पैमाने पर स्थानांतरण को लेकर है जिससे मौजूदा समुदाय विचलित हो रहे हैं, तिब्बती जनसंख्या हाशिए पर जा रही है और नाजुक प्राकृतिक पर्यावरण को खतरा पैदा हो रहा है।
11) अन्य देशों के साथ सांस्कृतिक, शैक्षणिक और धार्मिक आदान-प्रदान
तिब्बती राष्ट्रीयता के चीन के अन्य राष्ट्रीयताओं, प्रांतों एवं क्षेत्रों के साथ स्वायत्तता के विषयों जैसे संस्कृति, कला, शिक्षा, विझान, जन स्वास्थ्य, खेल, धर्म पर्यावरण, अर्थव्यवस्था आदि के मामलों में आदान-प्रदान एवं सहयोग तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही स्वायत्तशासी क्षेत्र को यह अधिकार भी देना चाहिए कि वह इस प्रकार का आदान-प्रदान अपने पड़ोस के अन्य देशों से भी कर सके जैसा कि एलआरएनए की धारा 42 में भी कहा गया है।
5. पीआरसी में तिब्बती राष्ट्रीयता के लिए एक प्रशासन का आवेदन
तिब्बती राष्ट्रीयता ऊपर वर्णित बुनियादी तिब्बती जरूरतों के आधार पर स्वशासन लागू करने के लिए अपनी विशिष्ट पहचान, संस्कृति और आध्यात्मिक परंपराओं का विकास और पोषण कर सके इसके लिए यह जरूरी है कि चीन जनवादी गणतंत्र द्वारा तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र के रूप में निर्धारित समूचे क्षेत्र के पूरे समुदाय को एक प्रशासनिक इकाई के अंदर लाया जाए।
चीन के विभिन्न प्रांतों और क्षेत्रों के रूप में तिब्बती समुदाय पर फिलहाल जिन प्रशासनिक विभाजनों द्वारा शासन किया जा रहा है, वह मूर्खतापूर्ण तरीके से विघटन पैदा करने वाला है, असमान विकास को बढ़ावा देता है और साझा संस्कृति, अध्यात्म एवं नस्लीय पहचान के संरक्षण एवं प्रोत्साहन के मामले में तिब्बती राष्ट्रीयता की क्षमता को कमजोर करता है। राष्ट्रीयताओं के एकीकरण का सम्मान करने की जगह यह नीति उनमें विघटन को बढ़ावा देती है और स्वायत्तता की भावना का असम्मान करती है। उग्योर एवं मंगोल जैसे अन्य बड़े अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं को जहां पूरी तरह अपने एक स्वायत्तशासी क्षेत्र के भीतर शासित करने का अधिकार है वहीं तिब्बती लोगों को ऐसा बनाए रखा गया है जैसे वे एक नहीं बल्कि अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताएं है।
वर्तमान निर्धारित तिब्बती स्वायत्तशसी क्षेत्र में रहने वाले सभी तिब्बतियों को एक स्वायत्त प्रशासन के भीतर लाना पूरी तरह से संविधान की धारा 4 और एलआरएन की धारा 2 मे विर्णित इस सिद्धांत के अनुरूप है कि, “क्षेत्रीय स्वायत्तता उन क्षेत्रों में लागू की जाएगी जहां अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता के लोग सघन समुदायों के रूप में रहते हों।”
एलआरएन राष्ट्रीय क्षेत्रीय स्वायत्तता को “चीन में राष्ट्रीय मसलों को हल करने कि लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा स्वीकार की गई बुनियादी नीति” माना है और अपनी प्रस्तावना में इसके अर्थ एवं आशय की व्याख्या इस प्रकार की हैः
एकीकृत केंद्रीय नेतृत्व के तहत ऐसे क्षेत्रों के अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं को क्षेत्रीय स्वायत्तता का लाभ मिलेगा जो उस क्षेत्र में सघन समुदायों के रूप में रह रहे हों और वे स्वायत्तता का आधिकार लागू करने के लिए स्वशासन के विभिन्न अंगों का गठन कर सकेंगे।
क्षेत्रीय स्वायत्तता में यह बात भी शामिल है कि केंद्र सरकार अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं के अपने आंतरिक मामलों को प्रशासित करने के अधिकार के लिए मिली गारंटी का पूर्ण सम्मान करेगी और समानता, एकता और सभी राष्ट्रीयताओं की साझा समृद्धि के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखेगी। यह बात साफ है कि पीआरसी के भीतर तिब्बती राष्ट्रीयता को खुद पर शासन करने और आंतरिक मामलों को प्रशासित करने का अधिकार हासिल करने में प्रभावी तौर पर तभी सक्षम होगी जब यह सब स्वशासन के ऐसे अंग के द्वारा किया जाए जिसका अधिकार क्षेत्र समूची तिब्बती राष्ट्रीयता पर एक साथ हों।
एलआरएनए इस सिंद्धांत को भी मान्यता प्रदान करता है कि राष्ट्रीय स्वायत्तशासी क्षेत्रों की सीमाओं में सुधार करने की जरूरत है। तिब्बती राष्ट्रीयता की एकता के सम्मान के माध्यम से क्षेत्रीय स्वायत्तता के बारे में संविधान के बुनियादी सिद्धांतों के पालन करने की जरूरत न केवल पूरी तरह वैधानिक है, बल्कि इसे हासिल कहने के लिए जरूरी प्रशासनिक बदलाव किसी तरह से भी संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करते। पहले ऐसे कई उदाहरण देखे गए हैं जब ऐसा वास्ताव में किया गया है।
6. स्वायत्तता की प्रकृति और ढांचा
पूर्वगत विषयों के मामले में किस सीमा तक खुद की सरकार और खुद के प्रशासन का अधिकार लागू किया जा सकता है यह काफी हद तक तिब्बती स्वायत्तता के वास्तविक चरित्र पर निर्भर करता है।
इसलिए इस समय कार्य यह देखना है कि स्वायत्तता को किस प्रकार से लागू और नियांत्रित किया जा सकता है कि यह तिब्बती राष्ट्रीयता की बुनियादी जरूरतों और विशेष परिस्थिति को प्रभावी तरीके से ध्यान रख सके।
वास्तविक स्वायत्तता को लागू करने में तिब्बतियों को यह अधिकार शामिल होगा कि वे अपने लिए ऐसी क्षेत्रीय सरकार, सरकारी संस्थाओं और कार्यप्रणाली का विकास कर सकें जो उनकी जरूरतों और विशिष्टताओं के बिल्कुल अनुकुल हो।
इसमें इस बात की जरूरत होगी कि स्वायत्तशासी क्षेत्र के पीपुल्स कांग्रेस को क्षेत्र की क्षमताओं के भीतर (ऊपर वर्णित विष्यों) सभी मामलों में कानून बनाने का अधिकार हो और स्वायत्तशासी सरकार के अन्य अंग सभी निर्णयों को स्वायत्त रूप से लागू और प्रशासित कर सकें।
स्वायत्तता के लिए यह भी जरूरी है कि केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर लिए जाने वाले निर्णयों में प्रतिनिधित्व और सार्थक भागीदारी हो। स्वायत्तता को प्रभावी बनाने के लिए यह भी जरूरी है कि साझा हितों के मामले में केंद्र सरकार और क्षेत्रीय सरकार के बीच प्रभावी परामर्श, गहन सहयोग या संयुक्त रूप से निर्णय लेने की प्रक्रिया चलती रहे।
वास्तविक स्वायत्तता का एक महत्वपूर्ण तत्व यह भी है कि स्वायत्तशासी क्षेत्र को संविधान या अन्य कानूनों के द्वारा जिन शक्तियों और जिम्मेदारियों की गारंटी दी गई है उसे एकपक्षीय तरीके से बदला या नेस्तनाबूद न किया जा सके। इसका मतलब यह है कि केंद्र सरकार या स्वायत्तशासी क्षेत्र की सरकार, कोई भी एक-दूसरे की सहमति के बिना स्वायत्तता की बुनियादी विशेषताओं में बदलाव करने में सक्षम न हो।
तिब्बत के लिए वास्तविक स्वायत्तता का मानदंड और विशिष्टताएं जो तिब्बती लोगों और क्षेत्र की अलग तरह की जरूरतों और दशाओं के अनुकूल हों उन्हें स्वायत्तता को लागू करने के नियमों में विस्तार से दिया गया हो, जैसा कि संविधान की धारा 116 में दिया गया है (एलआरएन की धारा 19 मे जिनका विधान है), यदि ज्यादा उपयुक्त लगे तो इसके लिए अलग से कानून या नियम बनाए जा सकते हैं। संविधान में (धारा 31 के साथ) तिब्बत जैसी विशिष्ट अवस्था के लिए खास कानून बनाने की छूट दी गई है, लेकिन यह भी कहा गया है कि देश में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक व्यवस्था का सम्मान किया जाएगा।
संविधान का खंड 6 राष्ट्रीय स्वायत्तशासी क्षेत्र में स्वशासन के अंगों की व्यवस्था करता है और यह भी स्वीकार करता है कि उन्हें कानून बनाने का अधिकार है। इस प्रकार धारा 116 (एलआऱएन की धारा 19) भी उनके इस अधिकार से जुड़ा है कि वे “क्षेत्र की नागरिकता या नागरिकताओं की राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक लक्षणों को देखते हुए अलग से कानून बना सकें।”
इसी प्रकार संविधाम में कई क्षेत्रों (धारा 117-120) स्वायत्त प्रशासन के अधिकार को मान्यता दी गई है और साथ ही साथ स्वायत्त सरकार के इस अधिकार को भी स्वीकार किया गया है कि केंद्र सरकार और सरकार के अन्य उच्च विभागों के कानूनों एवं नीतियों को लागू करने के मामले में इस प्रकार का लचीलापन बरते ताकि वह स्वायत्तशासी क्षेत्र की दशा के अनुकूल हो (धारा 115)।
ऊपर वर्णित कानूनी प्रावधानों से स्वायत्त सरकार के अंगों में निर्णय लेने वाले अधिकारियों पर पर्याप्त अंकुश लगता है। इसके बावजूद संविधान इन सिद्धांतों को मान्यता दी गई है कि स्वशासन के अंग ऐसे कानून या नितियां बना सकेंगे जो स्थानीय जरूरतों का समाधान कर सकें और यह कानून केंद्रीय सरकार सहित अन्य जगहों पर लागू कानून से भिन्न हो सकते हैं। हालांकि तिब्बती लोगों की जरूरतें व्यापक तौर पर संविधान में दिए गए स्वायत्तता के सिद्धांतों के काफी अनुकूल हैं। जैसा कि हम देख चुके हैं कि इनको हासिल कर पाने में कई तरह की समस्याओं की वजह से अड़चनें आई हैं। इन समस्याओं की वजह ते ही उक्त सिद्धांतों को लागू करना आज काफी कठिन या अप्रभावी हो चुका है। उदाहरण के लिए वास्तविक स्वायत्तता को लागू करने के लिए इस बात की जरूरत है कि जिन मामलों में टकराव होने की गुंजाइश हो उनमें केंद्र सरकार और स्वायत्तशासी क्षेत्र की सरकार के बीच अधिकारों एवं जिम्मेदारियों का स्पष्ट विभाजन हो।
फिलहाल इस प्रकार की स्पष्टता नहीं है और स्वायत्तशासी क्षेत्र के लिए विधायी शक्तियों की संभावना अनिशिचत तो है ही, यह काफी सीमित भी है। इस प्रकार जहां संविधान यह चाहता है कि स्वायत्तशासी क्षेत्रों को उन मसलों पर कानून बनाने की जरूरतों को मान्यता दी जाए जो उनको प्रभावित करते हैं, वहीं इसके लिए पहले केंद्रीय सरकार से उच्च स्तर पर (नेशनल पीपुल्स कांग्रेस यानी एनपीसी की स्थायी समिति) मंजूरी हासिल करने की धारा 116 के शर्त स्वायत्तता के सिद्धांतों को लागू करने की व्यवस्था को सीमित कर देती है। व्यावहारिक तौर पर केवल स्वायत्तशासी क्षेत्र की क्षेत्रीय विधायिका को ही इस प्रकार की मंजूरी लेनी पड़ रही है, जबकि चीन के गैर स्वायत्तशासी क्षेत्रों के सामान्य प्रांतों की विधायिका को पहले से ऐसी मंजूरी की जरूरत नहीं है वे सिर्फ अपने कानूनों के अंश को रिकॉर्ड के लिए एनपीसी की स्थायी समित को भेज देते हैं। (धारा 100) इसके अलावा संविधान की धारा 115 के अनुसार स्वायत्तता की व्यवस्था को लागू करने में बहुत से अन्य कानूनों और नियमों का पालन करना होगा। कोई तरह के ऐसे कानून हैं जो प्रभावी तौर पर स्वायत्तशासी क्षेत्र की स्वायत्तता को सिमित करते हैं, जबकि कई अन्य ऐसे कानून हैं जो एक-दूसरे से मेल नहीं खाते।
इसका परिणाम यह है कि स्वायत्तता की सही गुंजाइश साफ नहीं है और निशिचत भी नहीं है क्योंकि केंद्र में उच्च स्तर पर किसी भी कानून या नियम के लागू करने से इसमें पूरी तरह बदलाव आ सकता है। केंद्र सरकार और क्षेत्रीय सरकारों के बीच स्वायत्तता की गुंजाइश और उसे लागू करने के मामले में उठाने वाले विवादों को निपटाने या सलाह देने के लिए भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। व्यवहारिक रुप में इससे जो अनिशिचतता पैदा होती है वह क्षेत्रीय प्रशासन के पहल को सीमित कर देती है और तिब्बतियों मिलने वाले वास्तविक स्वायत्तता के पालन को बाधित करती है।
इस समय हम इस सबके बारे में विस्तार में नहीं जाना चाहते कि आज तिब्बतियों को वास्तविक स्वायत्तता को लागू करने के मामले में कितनी तरह की अड़चनें आ रही हैं, लेकिन इनका उल्लेख ऐसे उदाहरणों में करना चाहते हैं ताकि भविष्य में हमारे बीच होने वाली वार्ताओं में उनका समाधान पर्याप्त तरीके से किया जा सके।
हम संविधान और अन्य प्रासंगिक कानूनी प्रावधानों का अध्ययन जारी रखेंगे जब भी उपयुक्त होगा अपनी समझ के हिसाब से और विशलेषण उपलब्ध करना चाहेंगे।
7. आगे का रास्ता
जैसा कि हमने इस झापन के प्रारंभ में ही कहा है, हमारा इरादा यह संभावनाएं तलाशना है कि चीन जनवादी गणतंत्र के ढांचे के भीतर तिब्बती राष्ट्रीयता की जरूरतों को किस प्रकार पूरा किया जा सकता है क्योंकि हमारा यह मानना है कि ये जरूरतें संविधान में वर्णित स्वायत्तता के सिद्धांतों के अनुरूप ही हैं। जैसा कि परम पावन दलाई लामा कई अवसरों पर कह चुके हैं, हमारा कोई छिपा हुआ एजेंडा नहीं है। हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं है कि स्वायत्तता के किसी समझौते का लभ उठाकर चीन से तिब्बत को अलग करने की तरफ बढ़ें।
निर्वासित तिब्बती सरकार का भी लक्ष्य तिब्बती जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करना और उनकी तरफ से अपनी बात रखना है। इसलिए एक बार जब हमारे बीच कोई समझौता हो जाता है तो इस सरकार की जरूरत नहीं रहेगी और इसे भंग कर दिया जाएगा। तथ्य तो यह है कि परम पावन दलाई लामा जी ने कई बार अपना यह निर्णय दोहराया है कि तिब्बत में कभी भी कोई भी राजनीतिक पद स्वीकार नहीं करेंगे। हालांकि, परम पावन दलाई लामा की योजना इस प्रकार के किसी समझौते तक पहुंचने में अपना पूरा व्यक्तिगत प्रभाव लगा देने की है लेकिन इसे वैधानिकता देने के लिए यह जरूरी होगा कि तिब्बती जनता इसका समर्थन करे।
अपनी मजबूत प्रतिबद्धता की वजह से हम यह प्रस्तावित करते हैं कि समझौते की प्रक्रिया के लिए अगला चरण यह होगा कि झापन में उठाए गए गंभीरता से चर्चा शुरू की जाए। इस उद्देशय से हम यह भी प्रस्तावित करते हैं कि इसे प्रभावी तौर पर करने के लिए हम एक परस्पर स्वीकार्य़ तंत्र या तंत्रों के बारे में चर्चा कर उन पर सहमति बना सकते हैं।
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(Middle Way Approach)
मध्यम मार्ग नीति का परिचय और इतिहास
तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने और तिब्बती व चीनी लोगों के बीच समानता व सहयोग पर आधारित स्थिरता व सहअस्तित्व कायम करने के लिए परम पावन दलाई लामा ने मध्यम मार्ग का प्रस्ताव किया ! यह एक एसी नीति भी है जिसे केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन और तिब्बती लोगों ने लम्बे समय से जारी चर्चाओं के बाद लोकतांत्रिक तरीके से अपनाया है ! मध्यम मार्ग नीति और उसके इतिहास का यह संक्षिप्त परिचय इसलिए दिया जा रहा है ताकि तिब्बत व तिब्बत के बाहर रहने वाले तिब्बती लोग और वे सभी लोग जो इसमें रूचि रखते हैं इसमें शामिल मुद्दों को बेहतर ढंग से समझ सकें !
क. मध्यम मार्ग नीति का मतलबः
तिब्बती जनता को चीन जनवादी गणतंत्र के अधीन तिब्बत की वर्तमान स्थिति स्वीकार्य नहीं है !
साथ ही वे तिब्बत की स्वतंत्रता की मांग भी नहीं करते, जो कि एक एतिहासिक तथ्य है ! इन दोनों के बीच का रास्ता अपना कर ही यह मध्यम मार्ग नीति बनी है और इसका अभिप्राय चीन जनवादी गणतंत्र के ढांचे के तहत तिब्बत के तीन परंपरागत प्रांतों में रहने वाले सभी तिब्बतियों के लिए एक वास्तविक स्वायत्ता प्राप्त करना है ! यह एक निष्पक्ष और संतुलित स्थिति है जो सभी संबंधित पक्षों के महत्वपूर्ण हितों की रक्षा करती है !
तिब्बतियों के लिएः उनकी संस्कृति, धर्म और राष्ट्रीय पहचान का संरक्ष्ण व सुरक्षा, चीनी लोगों के लिएः मातृभूमि की सुरक्षा और क्षेत्रीय एकता और पडोसियों व अन्य तीसरे पक्षों के लिएः शांतिपूर्ण सीमाएं और अंतर्राष्ट्रीय संबंध !
खः मध्यम मार्ग नीति का इतिहासः
हालांकि तिब्बत सरकार और चीन जनवादी गणतंत्र के बीच १७ सूत्रीय समझौता किसी समान आधार या पारस्परिक रजामंदी पर नहीं हुआ था, लेकिन परमपावन दलाई लामा ने १९५१ के बाद आठ वर्षों तक तिब्बती व चीनी लोगों के पारस्परिक हितों के लिए सभी संभव प्रयास किए ताकि चीन सरकार के साथ कोई शांतिपूर्ण समझौता कायम हो सके ! यहां तक कि जब परमपावन दलाई लामा और काशग के सदस्य १९५९ में ल्हासा से लोखा क्षेत्र में पहुंच गए तब भी उन्होंने चीनी सैन्य अधिकारियों के साथ बातचीत कर समझौते का प्रयास जारी रखा ! १७ सूत्रीय समझौते की शर्तों का पालन करने का उनका प्रयास मध्यम मार्ग नीति के समान ही था ! दुर्भग्य से चीनी सेना ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा में भारी सैन्य कार्रवाई की जिससे परमपावन दलाई लामा को यह बात समझ में आ गयी कि चीन सरकार से सहअस्तित्व बनाए रखना बहुत दिनों तक संभव नहीं है ! इन परिस्थितियों में उनके पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं था कि वह भारत में शरण लें और तिब्बती लोगों की स्वतंत्रता और खुशी के लिए निर्वासित रहकर कार्य करें !
तेजपुर (भारत) में अपने आगमन के जल्द ही बाद १८ अप्रैल, १९५९ को परमपावन
दलाई लामा ने एक बयान जारी किया जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि १७ सूत्रीय समझौता दबाव में किया गया था और चीन सरकार ने इस समझौते की शर्तों का सोच विचार के साथ घोर उल्लंघन किया है ! उस दिन से ही उन्होंने यह घोषणा की कि उक्त समझौते को रद्द और शून्य माना जाए और तिब्बत की स्वतंत्रता को पुनर्स्थापित करने के लिए वह संघर्ष करेंगे ! तबसे केंद्रीय तिब्बती प्रशासन और तिब्बती लोगों ने तिब्बत की स्वतंत्रता प्राप्त के लिए सन १९७९ तक संघर्ष जारी रखा ! लेकिन आमतौर पर पूरी दुनिया में राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक रूप से पारस्परिक निर्भरता बढ रही है ! इसके परिणामस्वरूप देशों और राष्ट्रीयताओं की स्वतंत्र स्थिति में भारी बदलाव आ रहे हैं ! चीन में भी निशचित रूप से बदलाव होगा और दोनों पक्षों के लिए एसा समय जरूर आएगा कि वह वास्तविक बातचीत में शामिल हों ! इसलिए परमपावन दलाई लामा लम्बे समय से यह मानते आ रहे हैं कि तिब्बत समस्या का हल बातचीत से तलाशने के लिए यह ज्यादा फायदेमंद होगा कि तिब्बत की स्वतंत्रता की बहाली की मांग वाली नीति को बदलकर एक एसा रास्ता अपनाया जाए जो चीन व तिब्बत दोनों के लिए लाभकारी हो !
गः मध्यम मार्ग नीति अचानक नहीं तैयार हुईः
हालांकि परमपावन दलाई लामा ने इस विकल्प पर बहुत पहले विचार कर लिया था लेकिन उन्होंने इसे मनमाने ढंग से लागू करने या दूसरों पर थोपने का निर्णय नहीं लिया ! १९७० के दशक के शुरूआती दौर से ही उन्होंने तिब्बत जनप्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष, काशग (मंत्रीमंडल) के सदस्य और कई विद्वान व अन्य अनुभवी व्यक्तियों से सुझाव लिए और इस मुद्दे पर कई दौर की चर्चा की ! विशेषकर १९७९ में चीन के सर्वोच्च नेता स्वर्गीय देंग सियोपिंग ने परमपावन दलाई लामा के समक्ष प्रस्ताव रखा कि ”स्वतंत्रता के अलावा अन्य सभी मुद्दे बातचीत से हल किए जा सकते हैं” यह प्रस्ताव परमपावन दलाई लामा ने इस पर तत्काल सकारात्मक प्रतिक्रिया जाहिर की और बातचीत के लिए राजी होने के अलावा तिब्बत की स्वतंत्रता की बहाली की नीति को मध्यम मार्ग नीति में परिवर्तित करने का निर्णय लिया ! यह निर्णय भी तिब्बत जनप्रतिनिधि सभा, काशग के सदस्यों और कई विद्वान व अनुभवी लोगों से कई दौर के परामर्श के बाद लिया गया था ! इसलिए यह स्पष्ट है कि यह नीति अचानक नहीं उभरी, बल्कि इसके विकास का एक निशचित इतिहास है !
घः मध्यम मार्ग नीति को लोकतांत्रिक तरीके से स्वीकार किया गया
मध्यम नीति को अपनाने के निर्णय के बाद और १५ जून १९८८ को स्ट्रासबर्ग स्थित यूरोपीय संसद में परमपावन दलाई लामा के बयान देने के पहले (जिसने हमारे लिए बातचीत का आधार तैयार किया कि तिब्बती लोगों को किस प्रकार की स्वायत्ता की .जरूरत है), ६ जून १९८८ को धर्मशाला में चार दिन का विशेष सम्मेलन आयोजित किया गया था ! इस सम्मेलन में तिब्बत जन प्रतिनिधि सभा और काशग के सदस्य, सरकारी कर्मचारी, सभी तिब्बती बस्तियों के अधिकारी और स्थानीय तिब्बती एसेम्बली के सदस्य, तिब्बती स्वंयसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि, हाल में तिब्बत से आए तिब्बती लोग और विशेष आमंत्रित सदस्य शामिल हुए ! इन सबने प्रस्ताव की रूप रेखा पर गहन विचार-विमर्श किया और अंत में सर्वसम्मति से इसे मंजूर किया !
चीन सरकार ने इस पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी इसलिए परमपावन दलाई लामा ने १९९६ और १९९७ में पुनः यह प्रस्ताव किया कि तिब्बती लोग जनमत संग्रह के माध्यम से तिब्बत की समस्या का सर्वोत्तम एंव संतोषजनक समाधान का निर्णय करें !
तदानुसार एक प्रारंभिक सर्वेक्षण कराया गया जिसमें ६४ प्रतिशत से भी अधिक तिब्बती जनता ने कहा कि जनमत संग्रह कराने की आवश्यकता नहीं है और चीन व दुनिया की बदलती राजनीतिक स्थिति के लिहाज से दलाई लामा जी समय समय पर जो निर्णय लेंगे वह उसका समर्थन करेंगे ! इसके प्रभाव से तिब्बती जनप्रतिनिधि सभा ने १८ दिसम्बर, १९९७ को सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया और इसके बारे में परमपावन दलाई लामा को बताया ! इसके बारे में परमपावन दलाई लामा को बताया ! इसकी प्रतिक्रिया में परमपावन दलाई लामा ने १० मार्च, १९९८ के अपने बयान में कहा था कि, ”पिछले वर्ष हमने निर्वासित तिब्बतियों के बीच एक जनमत सर्वेक्षण करवाया था और जहां तक संभव हुआ प्रस्तावित जनमत संग्रह के बारे में तिब्बत से भी सुझाव प्राप्त किए गए, ताकि जनमत संग्रह के द्वारा तिब्बत के लोग अपनी पूर्ण संतुष्टि के साथ हमारे संघर्ष की दिशा निर्धारित कर सकें ! इस जनमत सर्वेक्षण के परिणामों और तिब्बत में रह रहे तिब्बती लोगों के सुझावों के आधार पर तिब्बत जनप्रतिनिधि सभा हमारी निर्वासित संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें मुझे यह अधिकार दिया गया कि जनमत संग्रह का इंतजार किए बिना इस मसले पर मै अपने विवेक का उपयोग करना जारी रखूं !
मैं तिब्बत की जनता को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उसने मुझमें इतना अपार भरोसा, आत्मविश्र्वास और आशा जतायी है ! मै लगातार यह मानता हूं कि मेरी ‘मध्यम मार्ग नीति’ तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण ढंग से हल करने के लिए सबसे यथार्थवादी और व्यावहारिक तरीका है ! इस नीति से तिब्बती लोगों की महत्वपूर्ण जरूरतों की पूर्ति की जा सकती है ! साथ ही चीन जनवादी गणतंत्र की एकता व स्थिरता सुनिशचित की जा सकती है ! इसलिए मैं पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ इस मार्ग पर चलना जारी रखूंगा और चीनी नेतृत्व से मिलने के लिए गंभीर प्रयास भी करूंगा !” इस प्रकार यह नीति तिब्बती जनता के मत और तिब्बती जनप्रतिनिधि सभा द्वारा इस संबंध में सर्वसम्मति से पारित की गयी प्रस्ताव को ध्यान में रखकर स्वीकार की गयी है !
च. मध्यम मार्ग नीति के महत्वपूर्ण अंग
१. तिब्बत की स्वतंत्रता की मांग किए बिना केंद्रीय तिब्बती प्रशासन एक एसे राजनीतिक निकाय (पॉलिटिकल एनटीटी) की स्थापना के लिए संघर्ष करेगा जिसमें तिब्बत के तीन परंपरागत प्रांत हो !
२. इस प्रकार के निकाय को उचित एंव वास्तविक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्वायत्ता दी जाए !
३. इस स्वायत्त क्षेत्र का प्रशासन लोकतात्रिक प्रक्रिया के तहत चुनी गयी विधायिका और कार्यपालिका द्वारा चलाया जाना चाहिए !
४. अगर चीन सरकार उक्त स्थिति को स्वीकार कर लेती है तो तिब्बत भी चीन से अलग होने का मांग नहीं करेगा और चीन जनवादी गण्तंत्र के भीतर ही रहेगा !
५. जब तक तिब्बत शांति व अहिंसा क्षेत्र में परिवर्तित होगा है तब तक चीन सरकार अपनी सुरक्षा के लिए तिब्बत में सीमित संख्या में सैन्य बलों को रख सकती है !
६. चीन जनवादी गणतंत्र की केंद्रीय सरकार के पास तिब्बत के अंतर्राष्ट्रीय संबंध और प्रतिरक्षा के राजनीतिक पहलुओं की जिम्मेदारी होगी, जबकि तिब्बत से संबंधित अन्य सभी पहलुओं जैसे धर्म व संस्कृति, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, स्वास्थ, परिस्थितिकी व पर्यवरण
संरक्षण आदि का प्रबंध तिब्बती लोगों को करना चाहिए !
७. तिब्बत में मानवाधिकारों के हनन और चीनी जनसंख्या के तिब्बत में स्थानांतरण की नीति पर चीन सरकार को रोक लगानी चाहिए !
८. तिब्बत समस्या के हल के लिए चीन सरकार के साथ निष्कपट रूप से बातचीत करने और सामंजस्य बनाए रखने की मुख्य जिम्मेदारी परमपावन दलाई लामा जी को लेनी चाहिए !
छ. मध्यम मार्ग नीति की विशिष्टाएं
इस तथ्य के संदर्भ में तिब्बती लोगों की राजनीतिक आवश्यकताओं की तुलना में तिब्बती व चीनी लोगों के बीच एकता और सहअस्तित्व अधिक महत्वपूर्ण है, परमपावन दलाई लामा जी ने दोनों पक्षों के लिए लाभकारी मध्यम मार्ग नीति प्रस्तुत की जो एक महान प्रगतिशील राजनीतिक कदम है ! जनसंख्या के आकार, आर्थिक शक्ति और सैन्य ताकत में अंतर के बावजूद विभिन्न राष्ट्रीयताओं का इस आधार पर एक समान स्तर का सहस्तित्व हो सकता है कि उनमें इस बात पर भेद-भाव न हो कि कोई एक राष्ट्रीयता किसी दूसरी के मुकाबले उंची या बेहतर है ! इसलिए राष्ट्रीयताओं के बीच एकता सुनिशचित करने के लिए यह एक अनिवार्य मानदंड है ! यदि तिब्बती और चीनी जनता एक समान आधार पर सहअस्तित्व के रह सके तो यह चीन जनवादी गणतंत्र में राष्ट्रीयताओं की एकता, सामाजिक स्थिरता और क्षेत्रीय एकता की गरंटी के लिए आधार का कार्य करेगा जो कि चीन के लिए सर्वोच्च महत्व रखता है ! इसलिए मध्यम मार्ग नीति का विशेष लक्षण यह है कि इस पर चल कर हम अहिंसा, पारस्परिक लाभ, राष्ट्रीयताओं की एकता और सामाजिक स्थिरता के द्वारा शांति प्राप्त कर सकते हैं !
निष्कर्षः
आशा है कि केंद्रीय तिब्बती प्रशासन और तिब्बती जनता द्वारा स्वीकार की गयी मध्यम
मार्ग नीति और उसके इतिहास का यह संक्षिप्त परिचय सभी वर्गों के लोगों का पर्याप्त
रूप से ध्यान आकर्षित करेगा और इससे मध्यम मार्ग नीति को बेहतर रूप से समझने
में मदद मिलेगी ! इस अवसर पर हम दुनियाभर के उन सभी लोगों, विशेषकर तिब्बती नेताओं, अधिकारियों और तिब्बत के विद्वानों के प्रति आभार प्रकट करना चाहेंगे जिन्होंने
इस नीति का समर्थन किया है !