तिब्बत एक ऐसी बर्फीली भूमि है जो आर्यो की भूमि भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत श्रृंखला के पार स्थित है। बुद्ध शाक्युमनि ने इस भूमि को अपना आशीर्वाद दिया और यहां बौद्ध धर्म के प्रसार की भविष्यवाणी की। इसी भूमि पर कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील स्थित हैं जो भारत की प्रमुख धार्मिक परंपराओं में पवित्र माने गए हैं। तिब्बत उन चार महान नदियों का भी स्रोत है जो भारत में बहते हुए अंत में महासागरों में मिल जाती हैं। भौगोलिक रूप से यह किसी भारतीय उच्चभूमि जैसा ही है जिसे कई महान भारतीय गुरूओं ने 33 का स्वर्ग (त्रयस्त्रिम्शादेव) कहा है। पुरातात्विक खोजों से पता चलता है कि तिब्बती नस्ल का उदभव कम से कम दस हजार साल पहले हुआ था। धर्मग्रंथों से भी इस बात की पुष्टि होती है। बंगाली विद्वान प्रज्ञा वर्मा के अनुसार तिब्बती लोग एक दक्षिण भारतीय राजा रूपति के वंशज हैं जो महाभारत युद्ध के बाद बचते हुए तिब्बत पहुंच गए थे। तिब्बत के शाही वशं के बारे में यह माना जाता है कि करीब 150 ईसापूर्व में मगध के एक राजकुमार को राज्य से निर्वासन का आदेश मिला जिसके बाद वे भागकर तिब्बत पहुंच गए थे। तिब्बतियों ने उन्हें न्या-त्रि-सेनपो नाम दिया और उनको अपना राजा बना लिया। इस प्रकार तिब्बत में शाही वंश की शुरूआत हुई। हम चाहे अपने भूगोल, वंश परंपरा या शाही वंशावली किसी भी रूप में देखे, भारत और तिब्बत लंबे समय से एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं।
सातवीं और आठवीं शताब्दी में तिब्बती विद्यार्थियों को अध्ययन के लिए भारत भेजा गया। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद इन विद्यार्थियों, जैसे की थोन्मी संभोता ने नागरी लिपि के आधार पर तिब्बती वर्णमाला तैयार की जो तिब्बती लेखन के पुराने तरीके शांशुंग मारिग को सुधारकर बनाया गया था। इसके अलावा उन्होंने संस्कृत पर आधारित एक तिब्बती व्याकरण की भी रचना की। इन सबका न केवल तिब्बती सभ्यता के विकास में योगदान रहा, बल्कि इससे तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रसार में भी मदद मिली। आठवीं शताब्दी में बंगाल के एक राजकुमार शंतार्कशित भिक्षु बन गए। नालंदा विशवविद्यालय के इस प्रख्यात विद्वान ने तिब्बत का दौरा किया और वहां मठ परंपरा की स्थापना की। पशिचमी भारत के गुरू पदमासंभव ने तिब्बत में तांत्रिक बौद्धवाद का प्रसार किया। शंतार्कशित के एक शिष्य कमलशिला भी बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए तिब्बत गए। तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रसार करने वाले इन गुरूओं की दयालुता की वजह से ही बुद्ध के कई तरह के उपदेशों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया जैसे त्रिपटक की विषयवस्तु तैयार करने वाले तंत्र के तीन चक्रयान और चार वर्गों का। इनके अलावा नालंदा के 17 गुरूओं, आर्य नागार्जुन और आर्य असंग जैसे कई महान भारतीय टीकाकारों की विभिन्न रचनाओं का भी तिब्बती में अनुवाद किया गया। इससे तिब्बत में बौद्ध धर्म की उस परिपूर्ण और परिष्कृत परंपरा को स्थापित करने में मदद मिली चिसको तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, उदंतपुरी जैसी महान भारतीय विशवविद्यालयों में पल्लवित-पोषित किया गया था। इसके अलावा चूंकि तिब्बती विद्वान लगातार भारतीय स्रोतों से ही हवाला दे रहे थे और उन्होंने उसमें अपने विचार या धारण डालकर दूषित नहीं किया, इसलिए आज तक तिब्बती ही भारतीय बौद्ध परंपराओं को पूरी तरह और शुद्ध रूप में संरक्षित रखने में सक्षम हो पाए हैं, भारत में ऐसा नहीं हो पाया है। तिब्बती विद्वान जैसे अनुवादक थोम्मी संभोता (7 वीं शताब्दी) ने कई ग्रथों का अनुवाद किया जैसे अवलोकितेशवर के 21 तंत्र और विवेक सूत्र के लाखों आदर्श शलोक। बुटन रिनचेन डुब (1290-1364) द्वारा लिखित धर्म के उदय के इतिहास के अनुसार समय-समय पर कई अनुवादकों जैसे आठवीं शताब्दी में त्रिओ कवा पेलत्सेग, चोगरो लुई ग्यालत्सेन, शांग येशे डी और 14 वीं शताब्दी के अनुवादक लेगपा लोरडो तक करीब 192 तिब्बती अनुवादक हुए और 93 महान भारतीय गुरूओं ने उनके कार्य़ों का निरीक्षण करते हुए उस पर मुहर लगाई। कुल मिलाकर करीब 700 अनुवादक सक्रिय थे।
आठवीं शताब्दी से नौवीं शताब्दी की शुरूआत में आचार्य शंतार्कशित और सुरेंद्रबोधि से लेकर 17 वीं शताब्दी में आचार्य बलभद्र और उनके शिष्यों तक 300 से ज्यादा दूसरी भाषाओं के ग्रंथों का तिब्बती में अनुवाद किया गया। इनमें से ज्यादातर ग्रंथ संस्कृत भाषा के थे और चीनी भाषा के सिर्फ 10 ग्रांथों का अनुवाद किया गया। संस्कृत जैसी भारतीय भाषाओं के कई ग्रांथों का तिब्बती में अनुवाद किया गया। इन्हें दो श्रेणियों में बांटा गया है कंग्यू जिसमें भगवान बुद्ध के वचनों का अनुवाद है और तेंग्यूर जिसमें इसके बाद के भारतीय गुरूओं के वचनों का अनुवाद है। आज हम तिब्बती ही भारतीय बौद्ध परंपराओं को पूरे और शुद्ध तरीके से संरक्षित रख पाए हैं, भारत में ऐसा नहीं हो पाया है। भारतीय ग्रांथों के अनुवाद की बात की जाए तो सबसे ज्यादा अनुवाद तिब्बती भाषा में हुए हैं और उनको सबसे शुद्ध भी माना जाता है। मैं समझता हूं कि इसकी वजह यह है कि तिब्बती लिखित भाषा का सृजन संस्कृत के तरीके पर ही किया गया है। इतने ऊंचे अक्षांश पर दुर्गम यात्रा करने की मजबूरी के बावजूद बहुत से भारतीय धर्मगुरू बौद्ध धर्म का प्रसार करने के लिए तिब्बत गए। इनमें सबसे प्रसिद्ध हस्तियों में पंडित शक्यश्री, पंडित स्मृतिजनन और दीपंकर अतिशा का नाम आता है। उन दिनों हजारों तिब्बती बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिए भारत आते थे। इनमें बहुत से नागरिक अपना अध्ययन पूरा कर तिब्बत लौट जाते थे तो बहुत भारत में ही रह जाते थे। ऐसे कई तिब्बती विद्वान अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध हैं जैसे अनुवादक सामी सांगंये ड्रैक जो बाद में बोधगाया मठ के प्रमुख भी बने। कई ऐसे उदाहरण देखे गए हैं कि मठों पर तुर्की आक्रमणकारियों के हमले के बाद भारतीय धर्मगुरू तिब्बत चले गए।
इन सबसे यह बात निर्विवाद रूप से साफ होती है धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में तिब्बतियों और भारतीयों के बीच प्रगाढ़ संबंध था। मुझे भेजे एक पत्र में स्वर्गीय मोरारजी देसाई ने लिखा था, भारत और तिब्बत एक ही बोधि वृक्ष की दो शाखाओं जैसे हैं। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं, इसलिए ही मैं तहे दिल से भारतीयों को अपना गुरू मानता हूं जिसके हम तिब्बती लोग चेला या विद्यार्थी हैं। भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने के बाद तिब्बत के साथ इस देश का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संपर्क भी घटने लगा। हालांकि तिब्बती लगातार भारत के पवित्र बौद्ध तीर्थी स्थलों का दर्शन करते रहे और भारतीय लोग 1959 तक बिना किसी पासपोर्ट और वीजा की जरूरत के कैलाश एवं मानसरोवर झील की यात्रा करते रहे। दोनों देशों के बीच पशिचमी सीमा के लद्दाख और पूर्वी क्षेत्र सीमा पर वर्तमान अरूणाचल प्रदेश से होकर व्यापार भी होता रहा। तिब्बत ने अपनी सीमाओं पर स्थित देशों से महत्वपूर्ण मसलों पर समझौता भी किया था। उन दिनों सीमावर्ती क्षेत्र के पवित्र स्थलों पर धार्मिक उद्देशय से दान भेजने की भी परंपरा थी। बीसवीं शताब्दी में महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन (1893-1963) ने तीन बार तिब्बत का दौरा किया और वहां से कई दुर्लभ संस्कृत ग्रांथ लेकर आए जिनका भारत में बौद्ध धर्म के उभार में महान योगदान रहा। राजनीतिक रूप से देखें तो 1904 में तिब्बत ने ब्रिटिश भारत के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। साल 1910 में 13 वें दलाई लामा को वहां से पलायित होकर भारत में निर्वासित होना पड़ा। साल 1913-14 में ब्रिटिश भारत और तिब्बत के बीच शिमला समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इसके अनुसार दोनों पक्ष हर दस वर्ष में समझौते की शर्तों की समीक्षा करने को भी तैयार हुए। तिब्बत और भारत के बीच व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा व्यवस्था की गई। ल्हासा में डाक सेवाओं, टेलीफोन लाइन की शुरूआत हुई और वहां एक भारतीय दूतावास की स्थापना की गई। भारत को आजादी मिलने से कुछ माह पहले मार्च 1947 में यहां आयोजित एक एशियाई संबंध सम्मेलन में तिब्बत के प्रतिनिधियों को भी आमांत्रित किया गया।
1956 में भारत में आयोजित भगवान बुद्ध की 2500वीं जयंती के समारोह में शामिल होने का निमंत्रण मिलने के बाद मैं और पंचेन रिनपोछे कई अन्य लामाओं के साथ आज़ाद भारत में आए। भारत में पवित्र बौद्ध स्थलों की यात्रा करने वाले सभी तीर्थयात्रियों के लिए सिर्फ आधा यात्री किराया लेने की सरकार ने उदार घोषणा की। मुझे खुद भी भारत के कई बौद्ध और गैर बौद्ध पवित्र स्थलों की तीर्थ यात्रा करने का तो अवसर मिला ही, मैने भारत में कई तरह के औद्योगिक विकास देखे जिसने मेरे अंदर नए तरह की आकांक्षाए पैदा की। मुझे कई प्रमुख भारतीय नेताओं मिलने और उनसे परामर्श करने का अवसर मिला। खासकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के असरकारी मार्गदर्शन से तिब्बतियों को बहुत फायदा हुआ। लेकिन उस साल भारत में राजनीतिक शरण लेने की जगह मैने तिब्बत वापस लौटने का फैसला किया।
बाद में मुझे यह देखकर गर्व हुआ कि सांसारिक और आध्यात्मिक जवाबदेहियों को पूरा कर सका, जैसे गेशे (ड़ॉक्टोरल) की अंतिम परीक्षा में शामिल होना, बल्कि चीनी अधिकारियों से बातचीत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि, स्थानीय तिब्बती सरकार और मैने यह सुनिशिचत करने का हरसंभव प्रयास किया कि सत्रह बिंदुओं वाले समझौते के आधार पर तिब्बती और चीनी जनता शांतिपूर्वक एकसाथ रह सके, लेकिन यह सब व्यर्थ साबित हुआ। चीनी बर्बरता का विरोध करने कि लिए तिब्बती जनता के पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा कि 10 मार्च, 1959 को वे एक शांतिपूर्वक जनक्रांति की शुरूआत करें। स्थिति गंभीर होती चली गई। मैने स्थिति को शांत करने के लिए अपना पूरा जोर लगाया और चीन की कठोर प्रतिक्रिया को रोकने का प्रयास किया, लेकिन इसमें सफल नहीं हो पाया।
इसका परिणाम यह हुआ कि तिब्बत सरकार के कुछ अधिकारियों, जिसमें कुछ कालोन (कैबिनेट मंत्री) शामिल थे, के साथ मुझे 17 मार्च को दक्षिणी तिब्बत से भागना पड़ा। मैने एर बार फिर वहीं से चीनी प्रशासन के साथ संपर्क बनाने का प्रयास किया, लेकिन 19 मार्च को स्थिति और ज्यादा खराब हो गई, जब चीनी सैनिकों ने कठोर दमन का सहारा लिया और 20,000 से ज्यादा निर्दोष तिब्बती मारे गए, घायल हुए या एक दिन के लिए हिरासत में लिए गए। इससे हमारे पास इस बात के अलावा और कोई चारा नहीं रहा कि भागकर भारत आ जाएं। कई दिनों की कठिन यात्रा के बाद आखिरकर 31 मार्च को हम सुरक्षित भारत पहुंच गए और आज़ादी की रोशनी देखी। मेरे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिन होने के साथ ही यह तिब्बती जनता के इतिहास का भी एक महत्वपूर्ण मोड़ था। चीनी सेना द्वारा पूरे तिब्बत में तिब्बती जनता के कठोर और निष्ठुर दमन की वजह से उसी साल करीब एक लाख तिब्बती नागरिकों को नेफा (वर्तमान अरूणाचल प्रदेश) और भूटान के रास्ते आकर भारत में शरण लेना पड़ा। भारत सरकार ने इस मामले में इतनी उदारता दिखाई कि असम के मिसामरी और बंगाल के बक्सा दुआर में तत्काल तिब्बतियों के लिए शरणार्थी शिविर लगाए गए। भारत सरकार ने जिस उदारता से खाना, कपड़ा, कंबल और चिकित्सा सुविधाओं जैसी सहायता की उससे तिब्बतियों को काफी राहत मिली। इसके बाद भिक्षुओं और भिक्षुणियों को अपना आध्यात्मिक अध्ययन जारी रखने का अवसर दिया गया, बच्चों को शिक्षा मिलने की व्यवस्था की गई, बुजुर्गों को मकान दिए गए और जरूरतमंदों को उपयुक्त रोजगार की व्यवस्था की गई। संक्षेप में कहें तो तिब्बतियों की भौतिक जरूरतों की पूर्ति हो जाने से हम अपना ध्यान धर्म, संस्कृति और हर तिब्बती पहचान पहचान बनाए रखने में लगा सके। खासकर पंडित नेहरू की दूरदृष्टि और व्यक्तिगत चिंता की बदौलत ही हम तिब्बती कृषक बस्तियों की स्थापना कर सके। इन बस्तियों की स्थापना का उद्देशय यह था कि तिब्बती समुदाय इधर-उधर भटकने की जगह सामुदायिक तरीके से एक जगह रह सके । तिब्बती बच्चों के लिए अलग स्कूल खोले गए ताकि आधुनिक शिक्षा के साथ ही उनको अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म की भी जनकारी दी जा सके। पिछले पचास साल में एक लाख से ज्यादा तिब्बती शरणार्थियों को भारतीय नागरिकों जैसा ही सामाजिक लाभ हासिल है और अब हमारी तीसरी पीढ़ी भी आ गई है। भारत की केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों के हम ह्दय से आभारी हैं कि वे खुद की समस्याओं से निपटने के साथ ही पूरे मन के साथ और लगातार तिब्बतियों के समर्थन एवं सहयोग में लगे रहे । तिब्बतियों के प्रति भारतीय जनता ने जिस प्रकार मित्रता और सहानुभूति दिखाई है उससे हमें लगता है कि यह देश वास्तव में हमारा दूसरा घर है। वास्तव में हम तिब्बतियों के पास जो भी कौशल एवं क्षमता थी, उसका प्रदर्शन करने में हम सक्षम हुए हैं।
कुल मिलाकर कहें तो भारत ने हमे सबसे ज्यादा नैतिक एवं भौतिक सहयोग दिया है। पिछले पचास साल पर जब हम नजर डालते हैं तो हम बात को लेकर आशवस्त हो जाते हैं कि भारत में शरण लेने का हमारा निर्णय बिल्कुल सही था। अपने जातीय, धार्मिक या राजनीतिक जुड़ाव के बावजूद बहुत से भारतीय नागरिकों ने भारत-तिब्बत मैत्री समाज (आईटीएफएस), भारत तिब्बत सहयोग मंच और फ्रेंडस आँफ टिबेट जैसे तिब्बत समर्थक समूहों की स्थापना की है। असंख्य भारतीय नागरिकों ने तिब्बती जनता के प्रति भारी सहानुभूति दिखाई है और तिब्बती आंदोलन एवं निर्वासित तिब्बतियों के कल्याण के लिए सक्रियता से काम किया है। यह भारत की उस विशिष्ट परंपरा को ही प्रदर्शित कता है कि गुरू अपने चेले की चिंता करता है। ऐसे महत्वपूर्ण दौर में जब हमारी पहचान और सभ्यता के विलुप्त होने का गंभीर खतार मंडरा रहा हो भारत द्वारा हमारे प्रति दिखाई गई नैतिक और भौतिक उदारता वास्तव में अंग्रेजी के इस कथन को ही प्रदर्शित करती है, “अ फ्रेंड इन नीड इज फ्रेड इंडीड।”
भारतीय और तिब्बती भाषा, आदतों और सामाजिक रीति-रिवाजों में अंतर को देखते हुए हमारी उपस्थिति से शुरूआती तौर पर कुछ असहजता और चिंता महसूस की गई होगी, लेकिन अब कुल मिलाकर हमारे बीच एक वास्तविक सामंजस्य विकसित हो चुका है। इससे हमें काफी ताकत और संतोष मिलता है। यह भारत के अहिंसा एवं सहिष्णुता की मूल्यवान परंपरा को भी दर्शाता है। भारत में अन्य शरणार्थी समुदायों की तुलना में तिब्बती शरणार्थियों की संख्या कम है, इसके बावजूद हमें भारत सरकार और यहां की जनता, दोनों से सबसे उदार रूप से सम्मान और सहायता मिली है। भारत सरकार द्वारा दिए गए छोटे-छोटे भूखंडों पर खेती करने के अलावा तिब्बती लोग देश भर के शहरों एवं कस्बों में सर्दियों के दौरान स्वेटर बेचने का छोटा-मोटा कारोबर करते हैं। यह कारोबर उनके लिए न सिर्फ जीविका का जरिया होता है, बल्कि इससे हमारे समुदाय के लोगों को इस देश की जनता के साथ संपर्क बनाने और परस्पर समझ विकसित करने का अवसर मिलता है। हालांकि, तिब्बती शरणार्थी काफी हद तक व्यक्तिगत रूप से आत्मनिर्भर हो चुके हैं, लेकिन भारत सरकार कई तिब्बती स्कूलों और तिब्बती संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं की जिस समर्पण के साथ मदद कर रही है उसके लिए आज भी उसके ऋणी हैं।
व्यक्तिगात तौर पर निर्वासन में जिस तरह की आज़ादी मिली है उसके लिए मैं भारत का ऋणी हूं। मैं बुद्ध शाक्यमुनि के उपदेशों पर चलने में सक्षम रहा हूं और इस आधार पर ही मैं मानवता की भलाई के लिए कुछ योगदान करने का प्रयास करता रहा हूं। भारत में मुझे जिस तरह की आज़ादी मिली है वह मेरी आत्मकथा के शीर्षक “आज़ाद शरणार्थी” से साफ हो जाता है। भारत को अपना आध्यात्मिक घर मानना मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है कि अहिंसा और कारूणा जैसे भारत के प्रमुख सिद्धांतों को बढ़ावा दे सकूं।
एक मनुष्य के रूप में मेरी मुख्य प्रितबद्धता गर्मजोशी जैसे ऐसे मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने की है जो खुशहाल जीवन के लिए जरूरी हैं। एक धार्मिक व्यक्ति के रूप में मेरी दूसरी प्रतिबद्धता अंतर-धार्मिक सामंजस्य को बढ़ाने की है। मेरी तीसरी प्रतिबद्धता निशिचत रूप से तिब्बत का मसला है जो एक तरफ मेरे “दलाई लामा” नाम से तिब्बती होने की वजह से है, लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण वजह से है कि तिब्बत के
भीतर और बाहर रहने वाले तिब्बतियों ने मुझमें भरोसा जताया है। तिब्बतियों का कल्याण मेरी हर दिन की चिंता है और मैं अपने को केवल ऐसे व्यक्ति के रूप में ही मानता हूं जो उन तिब्बतियों की तरफ से बोलने के लिए आज़ाद है जिनका चीनी कम्युनिस्ट शासन द्वारा दमन किया जा रहा है और जिन्हें इस प्रकार की आज़ादी हासिल नहीं है।
पिछले पचास साल से मुझे आधिकारिक और व्यक्तिगत मसलों पर कई नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से उदारता, लगाव और व्यक्तिगत प्रोत्साहन हासिल हुआ। उन्होंने मुझमें भरोसा किया है, मित्रता की है और ऐसे कीमती सुझाव दिए हैं जिन्हें मैं हमेशा ह्दय में संजोकर रखता हूं। अभी यहां सबका नाम बताना संभव नहीं है, लेकिन यदि मैं कुछ लोगों का उल्लेख करूं तो उनमें सी राजगोपालचारी (राजाजी), डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, आचार्य विहोबा भावे, जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी शामिल हैं। तिब्बत को भारत दो हजार साल से भी ज्यादा समय से सहयोग और समर्थन दे रहा है, लेकिन खासकर पिछले पचास साल के सहयोग को गिना नहीं जा सकता। हम भारत के किस हद तक ऋणी हैं उसका बयान शब्दों में नहीं किया जा सकता। लेकिन इस देश में निर्वासन जीवन के पचास साल पूरे होने के अवसर पर मैं कितना ऋणी महसूस कर रहा हूं, यह बताने के लिए मैं आज यहां व्यक्तिगत रूप से उपस्थित अपने भारतीय मित्रों के माध्यम से भारत की जनता और भारत सरकार के प्रति हार्दिक कृतज्ञीता व्यक्त करना चाहूंगा।
तिब्बत में बौद्ध धर्म भारत से करीब 15 सौ साल पहले पहुंचा था। हालांकि, अपने जन्मभूमि में ही इस धर्म का प्रभाव घट गया है, लेकिन इसे हम तिब्बत में संजोए रखने में सफल हुए हैं और दूसरे लोगों को भी बुद्ध के उपदेशों का लाभ उठाने में मदद कर रहे हैं। हमें लगता है कि भारत की दयालुता के बदले में हम थोड़ा कुछ कर पाए हैं। भारत की समृद्धि बौद्ध विरासत के संरक्षण में यदि हम कुछ योगदान कर सके तो इससे हम सबको खुशी होगी। इस सपने को पूरा करने के लिए पंडित नेहरू ने सिक्किम रिसर्च इंस्टीट्यूट आँफ टिबेटन स्टडीज, लेह लद्दाख और वाराणसी में सेंट्रल यूनिवर्सिटी आँफ टिबेटन स्टडीज की स्थापना की। इन स्थानों पर ऐसे ग्रंथों का तिब्बती से संस्कृत जैसे भारतीय ग्रंथों का अनुवाद करने का प्रयास किया जा रहा है जिनका मूल ग्रंथ भारतीय भाषाओं में था लेकिन जो अब गायब हो चुके हैं। यह महत्वपूर्ण परियोजना सफल और संतोषजनक रही है। भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को पुर्नास्थापित करने की तिब्बती जनता की इच्छा के अनुरूप हम अभी तक जो कुछ कर पाए हैं उसके बारे में मैं आपको बताना चाहूंगा।
हम भारत को कंग्यूर (बुद्ध के उपदेशों का तिब्बती अनुवाद) और तेंग्यूर (बुद्ध के बाद के दौर के भारतीय गुरूओं की टिप्पणियों का अनुवाद) का पूरा सेट, 63 ग्रंथों का तिब्बती से संस्कृत में अनुवाद और हिंदी एवं अन्य भाषाओं में अनुवादित 150 ग्रंथ सौंपने की योजना बना रहे हैं।
तिब्बत के भीतर और बाहर रहने वाले सभी तिब्बती लोगों की तरफ से मैं गर्मजोशी से बार-बार आपको, लोगों को और भारत सरकार को धन्यवाद कहते हुए अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करना चाहता हूं।
साथ ही, मैं यह याद दिलाना चाहता हूं कि हमारे पड़ोसी देशों भूटान और नेपाल की धर्म एवं संस्कृति भी हमारे जैसी ही है और उनके साथ लंबे समय से हमारा गहरा रिशता रहा है। इन दिनों देशों ने भी तिब्बती शरणार्थियों को शरण दिया है। हम इन दोनों देशों की जनता और सरकारों के भी आभारी हैं। वास्तव में मैं उन सभी अन्य देशों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना चाहूंगा जहां तिब्बती जनता रह रही है।
सभी प्राणियों की खुशहाली की कामना के साथ।
दलाई लामा
31 मार्च, 2009