डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
हॉवर्ड यूनिवर्सिटी में कानून पढ़ा रहे डॉ. लोबजंग सांग्ये निर्वासित तिब्बती सरकार के नए प्रधानमंत्री चुने गए हैं। उन्होंने 55 प्रतिशत वोट लेकर अपने दो अन्य प्रतिद्वंद्वियों तेनजिंग टीथांग और ताशी वांगदी को परास्त कर दिया। भारत में स्थापित निर्वासित तिब्बती सरकार की संसद के लिए निश्चित अंतराल के बाद चुनाव होते हैं। संसद सदस्यों के चुनाव के अतिरिक्त प्रधानमंत्री का चुनाव मतदाता प्रत्यक्ष रूप से करते हैं।
प्रधानमंत्री अपने मंत्रिपरिषद का गठन करता है और यह जरूरी नहीं है कि मंत्रिपरिषद के ये सदस्य संसद के भी सदस्य हों। निर्वासित तिब्बती संविधान में प्रत्यक्ष प्रधानमंत्री चुनने की यह प्रणाली संविधान में एक संशोधन के बाद स्थापित की गई थी। इसी के तहत यह भी तय किया गया था कि कोई भी व्यक्ति दो बार से ज्यादा प्रधानमंत्री के पद पर नहीं रह सकता। वर्तमान प्रधानमंत्री प्रो. सोमदोंग रिनपोछे की यह दूसरी पारी थी। इसलिए उन्होंने इस बार चुनाव ही नहीं लड़ा।
इस बार के चुनाव एक अलग प्रकार के वातावरण में हो रहे थे। तिब्बतियों के आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा ने अपनी सभी राजनीतिक शक्तियां संसद को ही दे दी हैं। इसलिए इस बार का प्रधानमंत्री पहले से कहीं ज्यादा सशक्त सिद्ध होने वाला था। पुरानी पीढ़ी के टीथांग और ताशी वांगदी तो मैदान में बने रहे, लेकिन पहली बार इस पद के लिए उतरी महिला प्रत्याशी डोलमा गेयरी पहले चरण में ही बाहर हो गईं। यह पहली बार था कि नेपाल ने चीन के कहने पर अपने यहां इस चुनाव में बाधा उपस्थित की। मतदाताओं ने इस बार पुरानी पीढ़ी के लोगों को खारिज करते हुए नई पीढ़ी के प्रतिनिधि के तौर पर लोबजंग सांग्ये को वरीयता दी है।
सांग्ये उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो हिन्दुस्तान में ही पली-बढ़ी है। उनके माता-पिता तिब्बत से आए थे, लेकिन इस पीढ़ी ने तिब्बत नहीं देखा है। सांग्ये के चुनावों से एक और संकेत उभरता है। अभी तक निर्वासित तिब्बती सरकार में सारनाथ स्कूल ऑफ थॉट का ही वर्चस्व माना जाता था। इसके विरोधी यह मानते हैं कि पुरानी पीढ़ी के लोग तिब्बत की स्वतंत्रता की लड़ाई उस ढंग से नहीं लड़ रहे, जिस ढंग से इसे लड़ा जाना चाहिए। उन्हें यह भी लगता है कि तिब्बत के मामले में भारत सरकार उनकी उस प्रकार से सहायता नहीं कर रही, जिस प्रकार से उसे करनी चाहिए।
इस समूह के लोग शायद अमेरिका की सहायता या उसकी रणनीति पर ज्यादा भरोसा करते हैं। उन्हें शायद यह विश्वास है कि यदि तिब्बत को आजादी मिलती है या फिर इस समस्या का कोई समाधान निकलता है, तो वह अमेरिका के प्रयत्नों से ही होगा। जबकि सारनाथ की मान्यता है कि तिब्बत अमेरिका की राजनीतिक शतरंज का मोहरा हो सकता है, लंबी लड़ाई में भारत ही दूर तक का साथी हो सकता है। दलाई लामा भी इस बात से बहुत हद तक सहमत दिखाई देते हैं। लेकिन फिलहाल तो तिब्बत की राजनीति में यह सोच पीछे रह गई है।
(लेखक : हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के धर्मशाला परिसर के निदेशक हैं)
वीएचवी। सम्पादकीय डेस्क। 05 मई 2011