दिव्य हिमाचल, 16 फरवरी 2013
(डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
तिब्बत के भीतर आजादी का आंदोलन कभी समाप्त नहीं हुआ। कभी प्रत्यक्ष और कभी प्रच्छन्न उसकी तपश बीजिंग तक पहुंचती ही रही। 2009 में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालों ने संघर्ष के एक नए तरीके को जन्म दिया, जिसकी मिसाल दुनिया भर में हुए स्वतंत्रता संघर्षों में शायद ही कहीं मिलती हो। वह था, स्वयं को अग्निदेव के हवाले कर स्वतंत्रता की देवी की आराधना करना…
कुछ दिन पहले एक और तिब्बती भिक्षु ने तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए स्वयं को होम दिया। उसने अपने शरीर पर पेट्रोल छिड़क कर आत्मदाह कर लिया। इस प्रकार आत्मदाह करने वाले तिब्बतियों की संख्या सौ हो गई है। तिब्बत के भीतर आजादी के लिए लड़ रहे तिब्बतियों ने संघर्ष के इस अध्याय की शुरुआत 2009 में की थी। अब तक स्वतंत्रता की बलिवेदी पर प्राणोत्सर्ग करने वाले इस प्रकार के स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या सौ हो गई है। तिब्बत पर कब्जा करने की शुरुआत, चीन पर माओ के कब्जा करने के साथ ही 1949 में शुरूहो गई थी। उस वक्त तिब्बत को आशा थी कि संकट की इस घड़ी में भारत सरकार तिब्बत के साथ खड़ी होगी, लेकिन उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। नेहरू उस समय चीन को अपना स्वाभाविक साथी मानते थे। अलबत्ता भारत की जनता जरूर इस मौके पर तिब्बत के साथ खड़ी दिखाई दे रही थी। उसके बाद 1959 में तो चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह कब्जा ही कर लिया और दलाई लामा को भाग कर भारत आना पड़ा। तब से तिब्बत के लोग चीन से आजादी पाने के लिए संघर्षरत हैं।
चीन तिब्बत की संस्कृति, धर्म और भाषा को समाप्त कर उसका अस्तित्व मिटाने के प्रयास में लगा हुआ है। सांस्कृतिक क्रांति के दिनों में चीनी सेना ने वहां के सभी मंदिर मठ ध्वस्त कर दिए थे और ल्हासा के तीनों विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को धराशायी कर दिया था, लेकिन तिब्बतियों के भीतर के आजादी के जज्बे को चीन की सेना समाप्त नहीं कर पाई। तिब्बत के भीतर आजादी का आंदोलन कभी समाप्त नहीं हुआ।
कभी प्रत्यक्ष और कभी प्रच्छन्न उसकी तपश बीजिंग तक पहुंचती ही रही। 2009 में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालों ने संघर्ष के एक नए तरीके को जन्म दिया, जिसकी मिसाल दुनिया भर में हुए स्वतंत्रता संघर्षों में शायद ही कहीं मिलती हो। वह था, स्वयं को अग्निदेव के हवाले कर स्वतंत्रता की देवी की आराधना करना। इन आराधकों में ज्यादातर युवा पीढ़ी के लोग ही हैं। पंद्रह वर्ष के एक बालक तक ने इस यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी। सबसे बड़ी बात यह कि यह सारा संघर्ष अहिंसात्मक तरीके से हो रहा है।
जो व्यक्ति अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए ही तत्पर हो जाता है, वह सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है। भय तब तक ही रहता है, जब तक आदमी अपने प्राणों को बचाने की फिराकमें रहता है, लेकिन जिसे अपने ही प्राणों का मोह नहीं वह भला किसी से क्यों डरेगा। मानव बम बनने के पीछे यही मनोविज्ञान काम करता है। लेकिन आत्मदाह करने वाले किसी एक भी तिब्बती स्वतंत्रता सेनानी ने किसी चीनी को नुकसान पहुँचने या मारने का प्रयत्न नहीं किया, जबकि ऐसा करना उनके लिए बहुत सहज और आसान था। इससे पता चलता है कि तिब्बती स्वतंत्रता संग्राम कितने अहिंसात्मक तरीके से चल रहा है। चीन के इन आरोपों में कोई दम नहीं है कि तिब्बत की आजादी के लिए लड़ने वाले हिंसा का प्रयोग कर रहे हैं और वे आतंकवादी हैं ।
दरअसल चीन तो तिब्बतियों को उत्तेजित कर रहा है कि वे हिंसा का प्रयोग करें, क्योंकि चीन जानता है कि केवल मात्र साठ लाख की आबादी वाले तिब्बतियों को शासकीय हिंसा से कुचलना कितना आसान है। तिब्बती स्वतंत्रता सेनानी उचित ही चीन के इस जाल में न फंस कर त्याग और बलिदान का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।
यहां एक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि सारी दुनिया में, कहीं भी तथाकथित मानवाधिकारों के प्रश्न को लेकर आंसू बहाने वाली भारत सरकार तिब्बत में चीन सरकार द्वारा किए जा रहे इस अमानवीय कृत्य पर चुप क्यों है? मध्य पूर्व में पिछले दिनों हुए जनांदोलनों में मानवाधिकारों को लेकर भारत सरकार की चिंता समझी जा सकती है, लेकिन पड़ोसी देश तिब्बत में जो हो रहा है, उसकी निंदा स्वरूप सरकार के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा। कम से कम मानवीय आधार पर ही भारत सरकार इस पर अपनी चिंता तो प्रकट कर ही सकती थी, जबकि तिब्बत के साथ भारत के सदियों पुराने सांस्कृतिक व सामाजिक संबंध हैं।
चीन के साथ चल रही द्विपक्षीय वार्ताओं में तिब्बत में हो रहे इस नरमेध का विषय सरकार को जरूर उठाना चाहिए। अफजल गुरु की फांसी को लेकर जंतर-मंतर पर रुदाली का अभिनय करने वालों की विवशता तो समझ में आ सकती है, क्योंकि उनका रोना-धोना दिल से नहीं बल्कि एक रणनीति से संचालित होता है, लेकिन भारत सरकार तो मानवीय आधारों को तरजीह देती है, ऐसी घोषणा बराबर की जाती है। अपनी इन घोषणाओं के अनुरूप ही भारत सरकार को चीन द्वारा तिब्बतियों की प्रताड़ना के मसले को वैश्विक मंचों पर उठाना चाहिए। जाहिर है कि यदि भारत इस दिशा में कोई पहल करेगा तो शक्ति संतुलन की अमरीकी रणनीति के तहत भी तिब्बत के मसले को जगह मिल सकेगी। वर्षों से आत्मदाह की आग में जल रहे तिब्बत को भारत की कूटनीतिक सहायता की जरूरत है।
यह ऐसा मौका है, जब इस मुद्दे की तपिश दुनिया भर के अनेकों देशों में दलाई लामा के प्रवास के कारण महसूस की जा रही है। इस मौके का लाभ उठाते हुए भारत का चहुंमुखी घेराव का प्रयास कर रहे चीन के साम्राज्यवादी मंसूबों पर भी नकेल कसी जा सकेगी। गुरुगोलवलकर ने कहा था तिब्बत चीन के कब्जे में हमारी कमजोरी से ही गया है, इसका प्रायश्चित भी हमें ही करना होगा। प्रायश्चित करने का इससे उपयुक्त अवसर भला और क्या हो सकता है।