तिब्बती राष्ट्रीय जनक्रांति दिवस की 55वीं वर्षगांठ के अवसर पर सिक्योंग डा. लोबसांग सांगे का बयान
पचपन वर्ष पहले तिब्बत की राजधानी ल्हासा में इसी दिन हजारों तिब्बती परमपावन दलार्इ लामा की रक्षा और चीनी कब्जे से अपने देश को बचाने के लिए स्वत:स्फूर्त रूप से जुटे थे। इसके सात दिन बाद परमपावन दलार्इ लामा ने ल्हासा छोड़कर भारत जाने की यात्रा शुरू की। उनके साथ 80,000 तिब्बती निर्वासन में चले गये।
मैंने इस साल जनवरी में अरुणाचल प्रदेश के तवांग का दौरा किया और गहरार्इ से उन रास्तों को देखना चाहा था जिनसे होकर परमपावन दलार्इ लामा ने भारत में प्रवेश किया था। मैंने बोमडिला और तुतिंग का भी दौरा किया जहां हजारों तिब्बतियों ने शरण ली थी। इस दर्दनाक सचार्इ से मुुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि हमारे कर्इ बुजुर्ग जिन्हें 1959 में निर्वासन की इस यात्रा के लिए मजबूर किया गया था, अपनी मातृभूमि लौटने का सपना पूरा हुए बिना ही स्वर्गवासी हो गए। इसी प्रकार, तिब्बत में असंख्य ऐसे तिब्बतियों की मौत हो गर्इ जो अपने परिवार को साथ देखने या आज़ादी के सपने को पूरा नहीं कर सके। हालांकि, मुझे यह पूरा भरोसा है कि उनकी उम्मीद और सपना उनके बच्चों में जिंदा रहेगा और आगे बढ़ेगा। 1950 के दशक में खम और आमदो क्षेत्रों में जनक्रांति और प्रतिरोध से लेकर 1980 के दशक में ल्हासा में हुए विरोध प्रदर्शन, 2008 में देश भर में फैली जनक्रांति और हाल में आत्मदाह की घटनाओं के दौरान तिब्बत के भीतर रहने वाले तिब्बतियों ने जिस तरह का संयम और दृढ़ता दिखार्इ है, उससे यह साबित होता है कि तिब्बतियों का संघर्ष कम नहीं होगा।
आज तिब्बती संघर्ष का नेतृत्व तिब्बत के भीतर और निर्वासन में रहने वाली नर्इ पीढ़ी कर रही है। यह तिब्बत में रहने वाली तिब्बतियों की वह पीढ़ी है जो अपनी पहचान, स्वाधीनता और एकता की साफ तौर से और जोर-शोर से मांग कर रही है। ऐसे ही प्रयासों में निर्वासित तिब्बतियों की युवा पीढ़ी के अनगिनत लोग शामिल हो रहे हैं। चाबछा के स्कूली बच्चों ने अपने स्कूलों में पढ़ार्इ के माध्यम के रूप में तिब्बती भाषा को अपनाने की मांग की है, डि्ररू के तिब्बतियों ने अपनी छतों पर चीनी झंडा फहराने से इनकार कर दिया है और मेलड्रो गुनकार में सिथत ग्यामा खदानों से हुए मानवीय और पर्यावरणीय विनाश का शोर हमारे कानों तक पहुंच रहा है। ये विरोध प्रदर्शन साफ तौर से इस चीनी दुष्प्रचार को झुठलाते हैं कि “कुछ लोगों के अलावा, बाकी सभी तिब्बती तिब्बत में खुश हैं।”
वर्ष 2009 से अब तक समूचे तिब्बत में आत्मदाह की 126 घटनाएं हो चुकी हैं। ऐसी चरम कार्रवार्इ न करने की हमारी बार-बार की अपील के बावजूद आत्मदाह जारी हैं। गत 19 दिसंबर 2013 को आत्मदाह करने वाले एक भिक्षु सुलत्रिम ग्यात्सो अपने अंतिम बयान में लिखते हैं:
“क्या आप मुझे सुन सकते हैं? क्या आप इसे देख सकते हैं? क्या आप इसे सुन सकते हैं? मैं अपने कीमती शरीर को जलाने के लिए मजबूर हुआ हूं, परमपावन दलार्इ लामा को वापस लाने के लिए, कैद किये गये पंचेन लामा की रिहार्इ के लिए और 60 लाख तिब्बतियों के कल्याण के लिए।”
कशाग तिब्बत के सभी बहादुर तिब्बतियों के प्रति गहरा सम्मान प्रकट करता है। कशाग तिब्बत के भीतर रहने वाले तिब्बतियों द्वारा दमन और पीड़ा को खत्म करने की गुहार सुन रहा है। इसी वजह से इसका प्राथमिक और तात्कालिक लक्ष्य यही है कि जितनी जल्दी हो सके तिब्बत मसले का हल संवाद के द्वारा निकाला जाए। साथ ही, कशाग को अपने संघर्ष को मजबूती देने और उसे बनाए रखने के लिए यदि जरूरी हुआ तो एक दीर्घकालिक रणनीति बनानी होगी। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए कशाग तिब्बत मसले को वार्ता के द्वारा हल करने और तिब्बती संघर्ष को सफलतापूर्वक जारी रखने, दोनों तरह के प्रयास करेगा।
मेरे तिब्बती साथियो, हमें यह बात दिमाग में रखनी चाहिए कि वर्ष 2020 में तिब्बत पर चीन जनतांत्रिक गणराज्य के हमले का 70 साल हो रहा है। तब तक तिब्बतियों की जो पीढ़ी होगी उसके मन में आज़ाद तिब्बत की याद काफी धुंधली पड़ चुकी होगी। परमपावन दलार्इ लामा तब तक 85 वर्ष के हो जाएंगे और वह तिब्बती जनता का लगातार 70 वर्षों तक नेतृत्व कर चुके होंगे। तिब्बत के भीतर और बाहर की अगली पीढ़ी के तिब्बती नेतृत्व को एक महत्वपूर्ण तथा चुनौतीपूर्ण सचार्इ का सामना करना होगा। तिब्बत के भीतर रहने वाले तिब्बतियों के पास परंपरागत तिब्बत का कोर्इ व्यकितगत अनुभव नहीं रहेगा और तिब्बत के बाहर रहने वाली तिब्बतियों की पीढ़ी सिर्फ निर्वासन मेें बिताये जीवन के बारे में ही जानेगी। निर्वासित तिब्बती 60 लाख तिब्बतियों का महज 2.5 फीसदी ही हैं, लेकिन यह संभव है कि तब तक भारत, नेपाल, भूटान और पशिचमी देशों में इनकी संख्या बराबर हो जाए।
निर्वासन अनिशिचतता और आकसिमकता का जोखिमपूर्ण दौर होता है और कब्जा तो स्थायी पराधीनता का खतरनाक बदलाव साबित हो सकता है। हमारे सामने चुनौती होगी निर्वासन में जीवन और चीनी कब्जे में जीवन के बीच अंतर और खार्इ को दूर करने की। हमेें यह सीखना होगा कि इन बिल्कुल अगल तिब्बती सच्चाइयों और अनुभवों के बीच किस तरह से अपने स्वाधीनता संघर्ष को आगे बढ़ाएं, जिनमें से किसी की जड़ आज़ाद तिब्बत की व्यकितगत यादों में नहीं है। हम इसे कैसे हासिल करेंगे?
एक दीर्घकालिक रणनीति के तहत हमें तिब्बती दुनिया में आत्मनिर्भरता लानी होगी, विचारों में और कार्यों में। हमारे 50 साल पुराने आंदोलन को पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर नहीं रखा जा सकता कि वे हमें हमारे लक्ष्य को पूरा करने में मदद करें। अब समय आ गया है कि हम व्यकितगत जिम्मेदारी और सामूहिक नेतृत्व को समझें और अपने पैरों पर खड़े हों। हमें गहरार्इ से इसका प्रदर्शन करना होगा। मेरा मानना है कि शिक्षा हमारा सबसे उर्वर और व्यवहारिक निवेश एवं साधन है। जितनी कुशलता से हम अपनी समूची जनसंख्या को शिक्षित करेंगे, उतने ही सफल तरीके से हम आत्मनिर्भर आर्थिक, तकनीकी और सरकारी व्यवस्था की मजबूत बुनियाद विकसित कर पाएंगे। हमारे वैशिवक समर्थक हमारे उद्देश को जानते हैं और वे हमारे बौद्ध विरासत को महत्व देते हैं। तिब्बतियों ने नम्रता, र्इमानदारी और संयम के गुणों को तिब्बती संघर्ष की दृढ़ बुनियाद की तरह अपनाया है। अब सवाल यह है कि अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें आधुनिक शिक्षा में और क्या जोड़ना होगा। यह परंपरागत मूल्यों और सामयिक शिक्षा का संयोग होना चाहिए जो हमारे संघर्ष को सशक्त, जीवंत और दुर्जेय बनाएगा।
यह महत्वपूर्ण है कि युवा तिब्बती अपनी भाषा और देश के इतिहास का अध्ययन कर रहे हैं। यह भी इतनी ही महत्वपूर्ण बात है कि वे अलग-अलग परिवारों और पुश्तैनी जगहों की कहानियों और बयानों को रिकार्ड में दर्ज कर रहे हैं। वे तिब्बती रेस्त्रां में मोमोज का आनंद ले रहे हैं और तिब्बती संस्कृति को प्रकट करने के लिए छुबा पहन रहे हैं, लेकिन इस पहचान की जड़ मजबूत करने के लिए हमें खुद को शिक्षित करना होगा, तिब्बत के तिब्बतियों से गहरार्इ से जुड़ना होगा और आगे आने वाली चुनौतियों पर खुद विचार करना होगा। वर्ष 2014 जुड़ने, शिक्षित होने, खुद को सशक्त बनाने और आंदोलन का वर्ष है।
निर्वासित तिब्बती समुदाय में एकता बनाए रखने और प्रभावशीलता के लिए एक केंद्रीय तत्व होना महत्वपूर्ण है और तिब्बतियों के लिए केंद्रीय तिब्बती प्रशसन इस अपूरणीय केंद्र की भूमिका निभा रहा है। कशाग समर्पित युवाओं को आमंत्रित करता है कि वे केंद्रीय तिब्बती प्रशासन और तिब्बत संबंधित अन्य संगठनों में नेतृत्वकारी भूमिका ग्रहण करें।
अंत में, मैं परमपावन दलार्इ लामा और राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच हाल में हुर्इ मुलाकात का स्वागत करता हूं। राष्ट्रपति ओबामा द्वारा मध्यम मार्ग नीति को मजबूती से समर्थन देने के लिए मैं उनकी सराहना करता हूं। मध्यम मार्ग नीति के द्वारा तिब्बत के लिए वास्तविक स्वायत्तता के द्वारा राजनीतिक दमन की जगह बुनियादी सुविधाएं देने, आर्थिक हाशियाकरण की जगह आर्थिक सशकितकरण करने, सामाजिक भेदभाव की जगह सामाजिक बराबरी, सांस्कृतिक विलोपन की जगह संस्कृति को बढ़ावा देने और पर्यावरण विनाश की जगह पर्यावरण संरक्षण करने की आकांक्षा है। हम तिब्बत में दमन को खत्म करने के सबसे प्रभावी तरीके के रूप में मध्यम मार्ग पर चलने को प्रतिबद्ध हैं। हमें उम्मीद है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में नया चीनी नेतृत्व इस पर गौर करेगा और इस व्यावहारिक एवं संयत रुख को अपनाएगा।
कशाग महान देश भारत और यहां की दयालु जनता को धन्यवाद देता है। धर्मशाला में राजनीतिक जिम्मेदारी लेने के बाद मुझे पहले से ज्यादा इस बात का आभास हुआ कि भारत ने तिब्बत और तिब्बती जनता को कितना सहयोग दिया है और उसका सहयोग अब भी जारी है। कशाग दुनिया भर के उन सभी सरकारों, संसदों, तिब्बत समर्थक संगठनों और व्यकितयों की गहरी सराहना करता है और उनसे अनुरोध करता है कि आगे भी वे हमारा साथ देते रहें। मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि केंद्रीय तिब्बती प्रशासन ने वर्ष 2014 को परमपावन 14वें दलार्इ लामा के वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया है ताकि उनके दूरदर्शी नेतृत्व और तिब्बत एवं दुनिया में उनके योगदान का सम्मान किया जा सके। मुझे तिब्बतियों और दुनिया भर के अपने दोस्तों को यह याद दिलाने में भी खुशी हो रही है कि 2014 परमपावन दलार्इ लामा को नोबेल शांति पुरस्कार मिलने की भी 25वीं वर्षगांठ है। इस वर्ष 25 अप्रैल को हम 11वें पंचेन लामा गेदुन छोक्यी निमा का 25वां जन्मदिन भी मनाएंगे।
तिब्बती जनता हमारी सभ्यता के लंबे इतिहास के दौरान बार-बार भारी विपरीत परिसिथतियाें से निपटते हुए उठ खड़ी हुर्इ है। आज हमारे अंदर पहचान, एकजुटता और आत्मसम्मान की भावना और गहरी हुर्इ है। हम यदि एकजुट रहे और हम बुजुगोर्ं की समृद्ध परंपरा को नर्इ पीढ़ी के अनूठेपन और जीवंतता के साथ जोड़ पाए तो मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि चीन सरकार के पास हमारी आकांक्षाओं को पूरा करने के अलावा और कोर्इ चारा नहीं होगा।
प्रिय तिब्बती भाइयो एवं बहनो, हमारी यात्रा लंबी हो सकती और चुनौतियां डराने वाली हो सकती हैं, लेकिन हम सफल होंगे। तवांग में मैंने उस रास्ते को देखा है जिससे होकर परमपावन दलार्इ लामा, हमारे मां-बाप और बड़े-बुजुर्ग तिब्बत छोड़कर भारत आए हैं। कुछ दूरी से, मैं तिब्बत के महान पर्वतों और वहां की नदियों को देख सकता हूं। मैं वर्ष 2014 की शुरुआत के लिए इसे एक अच्छा शगुन मानता हूं जो आपको पसंद है, मैं तिब्बत वापस जाने का रास्ता देख रहा हूं।
अंतत: मैं परम पावन दलार्इ लामा जी कि दीर्घायु होने और तिब्बत समस्य का समाधान जल्द प्राप्त करने कि कामना करता हं।
10 मार्च 2014
धर्मशाला