चीनी अधिकारियों ने माओ द्वारा तिब्बत पर १९५० के चीनी आक्रमण से पहले के तिब्बतियों को ‘गरीब-वंचित’ दिखाते हुए प्रचार -प्रसार किया है।
rfa.org / लोबसांग गेलेक
चीनी अधिकारियों ने तिब्बत में स्थानीय लोगों को मंगलवार २६ दिसंबर को माओत्से तुंग का १३०वां जन्मदिन मनाने के लिए मजबूर किया। उन्होंने दिवंगत नेता को १९५० में ‘तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति’ का श्रेय दिया। हालांकि इस शांतिपूर्ण मुक्ति को निर्वासित तिब्बती अधिकारी चीनी आक्रमण और अवैध कब्जे की शुरुआत मानते हैं।
ल्हासा में एक युवा तिब्बती ने सुरक्षा कारणों से नाम न छापने की शर्त पर ‘रेडियो फ्री एशिया’ को बताया कि अधिकारियों ने माओ के जन्मदिन का इस्तेमाल ‘तिब्बत के पिछले इतिहास के बारे में गलत जानकारी फैलाने और तथ्यों को विकृत करने के लिए किया, ताकि तिब्बती लोगों को इस दुष्प्रचार पर विश्वास हो सके।’
सूत्र ने कहा कि माओ का जन्मदिन मनाने के लिए आयोजित सार्वजनिक समारोहों में चीन द्वारा क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जे को सही ठहराने के लिए चीनी आक्रमण से पहले के स्वतंत्र तिब्बत को पिछड़े और गरीब के रूप में दर्शाया जाता है। चीनी अधिकारी तर्क देते हैं कि तिब्बत ऐतिहासिक रूप से हमेशा चीन का हिस्सा रहा है।
व्यक्ति ने कहा, ‘चीनी अधिकारी इन आयोजनों में १९४० और १९५० के दशक के गरीब, वंचित तिब्बती परिवारों की तस्वीरों का इस्तेमाल और प्रसार करते हैं ताकि ऐसा लगे कि उस समय पूरा तिब्बत गरीबी से त्रस्त था।’
उन्होंने कहा, ‘हालांकि यह सच है कि तिब्बत पर पहली बार चीन के आक्रमण के बाद से तिब्बत में विकास हुआ है, लेकिन तथ्य यह भी हैं कि दुनिया के कई स्वतंत्र देशों में भी इसी अवधि में महत्वपूर्ण विकास हुआ है। और इसके लिए उन देशों में किसी प्रकार की कोई ‘शांतिपूर्ण मुक्ति’ के लिए अभियान चलाने की जरूरत नहीं पड़ी।’
माओ की सरकार ने १९५० में तिब्बत पर आक्रमण किया और स्थानीय लोगों की जनकांति को पूरी से कुचलने के बाद १९५९ में इस क्षेत्र पर पूरी तरह से कब्ज़ा कर लिया। इस कारण से तिब्बती आध्यात्मिक धर्मगुरु दलाई लामा को अपने हजारों अनुयायियों के साथ भारत में शरण लेनी पड़ी और हजारों तिब्बतियों को दुनिया में अन्य देशों में निर्वासन में पलायन करना पड़ा।
चीनी अधिकारियों ने तिब्बतियों की राजनीतिक गतिविधियों और सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान की अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करते हुए तब से इस क्षेत्र पर कड़ी पकड़ बना ली है। इसी अक्तूबर में बीजिंग ने तिब्बत की स्वतंत्र पहचान को पूरी तरह से नष्ट करने के लिए उसका नाम बदलकर रोमनीकृत नाम ‘ज़िज़ांग’ रख दिया है।
१७ सूत्री समझौता
तिब्बत के अंदरूनी सूत्र ने आरएफए को बताया कि माओ के जन्मदिन पर अपने प्रचार अभियान के दौरान चीनी अधिकारी फिर से इस विचार को बढ़ावा दे रहे थे कि १९५१ में दलाई लामा ने बीजिंग के साथ ‘१७ सूत्रीय समझौते’ पर हस्ताक्षर किए थे और माओ को एक टेलीग्राम में वादा किया था कि वह इसका पालन करेंगे।
हालांकि, विशेषज्ञों और अधिकार समूहों का कहना है कि परम पावन दलाई लामा को आक्रमणकारी चीनी बलों के दबाव में दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था। चीनी बलों ने धमकी दी थी कि अगर समझौते के दस्तावेज पर दस्तखत नहीं किए जो तिब्बत के पर पूर्ण रूप से आक्रमण कर दिया जाएगा। हालांकि दलाई लामा ने वहां से पलायन कर तिब्बत की सीमा के ठीक पार भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश में निर्वासन में पहुंचने के बाद समझौते को अस्वीकार कर दिया था।
सूत्र ने कहा कि इस समय तिब्बतियों के लिए तनावपूर्ण समय है। कई लोगों को अपनी जुबान बंद रखने को मजबूर होना पड़ रहा है, क्योंकि स्थानीय चीनी अधिकारी माओ के जन्मदिन का जश्न मना रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘कोई भी तिब्बती जो तिब्बत के अतीत, विशेष रूप से एक स्वतंत्र देश के रूप में तिब्बत के इतिहास के बारे में वास्तविक तथ्यों को सार्वजनिक करने की कोशिश करता है, उसे तुरंत चीनी पुलिस द्वारा पकड़ लिया जाता है और उन्हें उनके कोप का भाजन बनना पड़ता है।’
तिब्बत नीति संस्थान के निदेशक दावा छेरिंग ने कहा कि माओ के जन्मदिन पर जबरन जश्न मनाया जाना विशेष रूप से विकृत प्रतीत होता है, क्योंकि तिब्बती अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके पूर्वजों के खिलाफ कुछ सबसे भयंकर अत्याचार माओ के शासन के दौरान ही हुए थे।
छेरिंग ने आरएफए को बताया, ‘तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति’ वास्तव में चीनी अधिकारियों द्वारा तिब्बत पर आक्रमण् कर इस देश पर कब्ज़ा था। चीनी बलों ने कब्जे का विरोध करने वाले तिब्बतियों का क्रूरता से दमन किया और असहाय तिब्बतियों को १७ सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर कर दिया।’
भारत के धर्मशाला स्थित तिब्बती सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स एंड डेमोक्रेसी के शोधकर्ता न्यिमा वोएसर ने कहा कि माओ के १९५० के आक्रमण के बाद से तिब्बत में चीनी दमनकारी नीतियों के कारण १० लाख से अधिक तिब्बतियों के मारे जाने का अनुमान है। वोएसर ने कहा, ‘साल दर साल तिब्बत के अंदर मानवाधिकारों का हनन बद से बदतर होता जा रहा है और हाल-फिलहाल इसके कम होने का कोई संकेत नहीं है।’