निर्वासित तिब्बती संसद
निर्वासित तिब्बती संसद (टीपीआईई) केंद्रीय तिब्बती प्रशासन का एक सदनीय और सर्वोच्च विधायी अंग है। यह भारत के धर्मशाला में स्थित है। इस लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित निकाय का गठन उन प्रमुख परिवर्तनों के तहत हुआ है जो परम पावन दलाई लामा ने प्रशासन को लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत लाने के अपने प्रयासों के तहत किए थे। आज निर्वासित तिब्बती संसद में 45 सदस्य हैं। इनमें तिब्बत के तीन पारंपरिक प्रांतों- यू-त्सांग, डू-टोड और डू-मेड से दस-दस सदस्य निर्वाचित होकर आते हैं, जबकि तिब्बती बौद्ध धर्म के चार पंथों और पारंपरिक बॉन पंथ में से प्रत्येक से दो-दो सदस्यों का चुनाव होता। पांच सदस्य तिब्बतियों द्वारा पश्चिम से चुने जाते हैं। इनमें दो यूरोप से, दो उत्तर और दक्षिण अमेरिका से और एक आस्ट्रेलेशिया (भारत, नेपाल और भूटान को छोड़कर ऑस्ट्रेलिया और एशिया) से। निर्वासित तिब्बती संसद एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष के अनुशासन में काम करता है, जो सदस्यों द्वारा आपस में से ही चुने जाते हैं। कोई भी तिब्बती जो 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका है, उसे संसद का चुनाव लड़ने का अधिकार है।
चुनाव हर पांच साल में होते हैं और कोई भी तिब्बती जो 18 साल की उम्र पूरी कर चुका है, वोट देने का हकदार है। संसद के सत्र हर साल दो बार आयोजित किए जाते हैं। सत्रों के बीच अधिकतम छह महीने का अंतराल हो सकता है। जब संसद सत्र नहीं चल रहा होता है, तो ग्यारह सदस्यों की एक स्थायी समिति उसका काम करती है। इस समिति में प्रत्येक प्रांत से दो-दो सदस्य तथा प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय से एक-एक सदस्य होते हैं। संसद के सदस्य लोगों की समग्र स्थितियों का आकलन करने के लिए समय-समय पर तिब्बती बस्तियों का दौरा करते हैं। वहां से आकर वे उन सभी शिकायतों और मामलों के बारे में प्रशासन को अवगत कराते हैं, जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है। निर्वासित तिब्बती संसद 38 प्रमुख तिब्बती समुदायों में गठित स्थानीय संसदों के माध्यम से भी लोगों के संपर्क में रहती है। चार्टर में 50 से 150 तिब्बती परिवारों या 200 से 600 तक की आबादी वाले स्थायी रूप से बसे हुए समुदाय में एक स्थानीय तिब्बती संसद की स्थापना का प्रावधान किया गया है।
स्थानीय संसद निर्वासित तिब्बती संसद के तौर पर ही गठित की गई हैं। वे अपने संबंधित बसती या कल्याण अधिकारियों की गतिविधियों पर नजर रखते हैं। वे समुदाय के लोगों द्वारा महसूस की गई जरूरतों के अनुसार अपने-अपने समुदाय के लिए कानून भी बनाती हैं। स्थानीय संसद द्वारा पारित कानूनों को संबंधित बस्ती /कल्याण अधिकारी द्वारा लागू किया जाना अनिवार्य होता है।