भारत की उत्तरी सीमा पर एक बार फिर विवाद शुरु हो गया है । सप्त सिन्धु क्षेत्र में लद्दाख से लेकर पूर्वोत्तर भारत में अरुणाचल प्रदेश तक 3488 किलोमीटर तक फैली भारत-तिब्बत सीमा है। जब तक तिब्बत स्वतंत्र देश था तब तक इस सीमा पर कोई विवाद नहीं था। लेकिन 1959 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया और रातोंरात भारत-तिब्बत सीमा भारत-चीन सीमा में बदल गई। यदि उस समय भारत सरकार सक्रिय रहती तो शायद यह दुर्घटना न घटती। लेकिन उस समय नेहरु और उनके सबसे बड़े विश्वासी कृष्णामेनन चीन को प्रसन्न करने के लिए तिब्बत की बलि देने में सक्रिय थे। इसमें पुरोहित की भूमिका भारत के बीजिंग स्थित राजदूत पणिक्कर निभा रहे थे। शायद इन तीनों को लगता था कि तिब्बत की बलि से चीन प्रसन्न हो जाएगा। अलबत्ता गृहमंत्री सरदार पटेल ने जरुर 1949-1950 में ही नेहरु को एक पत्र लिखकर तिब्बत के प्रति चीन के इरादों से आगाह किया था और यह भी कहा था कि चीन केवल तिब्बत की बलि से प्रसन्न नहीं होगा। लेकिन नेहरु पटेल की सलाह को कितना महत्व देते थे यह कहने की जरुरत नहीं है।
चीन ने तो 1950 में ही नेहरु और कृष्णामेनन की सदाशयता का लाभ उठाते हुए लद्दाख में अक्साई चिन क्षेत्र के 38 हजार वर्ग किलोमीटर पर क़ब्जा ही नहीं कर लिया बल्कि उस क्षेत्र में से सिकियांग को तिब्बत से जोड़ने वाली दो सौ किलोमीटर सड़क भी बना ली थी। इस सड़क से चीन की सामरिक क्षमता बढ़ी। दुर्भाग्य से उस समय नेहरु सरकार ने अक्साई चिन को मुक्त करवाने की रणनीति बनाने की बजाए चीन के इस पूरे प्रकरण को भारतीयों से छिपाने में ज्यादा कौशल दिखाया। नेहरु के दुर्भाग्य से 1958 में चीन ने अपने नक्शे में अक्साई चिन को चीन का हिस्सा दिखा कर स्वयं ही सारा भांडाफोड कर दिया था। तब नेहरु को लोकसभा का सामना करना मुश्किल हो गया था। कांग्रेस के भीतर भी बबाल मच गया था लेकिन नेहरु किसी तरह महावीर त्यागी का सामना करते हुए भी बच निकले थे। परन्तु इसे क्या कहा जाए कि यह गच्छा खा जाने के बाद भी नेहरु संभले नहीं बल्कि हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा ज्यादा जोर से लगाने लगे थे।
1962 में चीन ने स्वयं ही भारत पर हमला कर, इस नारे को बन्द करवाया । इस हमले में चीन ने भारत की कई भूमि पर क़ब्जा कर लिया और स्वयं ही सीजफायर कर दिया। चीन की इस हरकत से नेहरु का जो होना था वह हुआ लेकिन चीन ने भी कुछ सबक़ सीख लिए।
चीन को लगा कि भविष्य में हिमालय पर यदि भारत के साथ लड़ाई लम्बी खिंचती है तो सीमा पर लड रही चीनी सेनाओं के लिए तिब्बत के रास्ते सप्लाई चेन बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा। इस लिए उसने उसी दिन से भारत-तिब्बत सीमांत पर सैनिक लिहाज से सड़कों का जाल बिछाना शुरु कर दिया। इतना ही नहीं उसने गोर्मो से लेकर ल्हासा तक रेलवे लाईन भी बिछा दी। भारत ने 1962 से क्या सीखा, इस पर बहस हो सकती है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उसके बाद भी भारत चीन गणतंत्र (ताइवान) के स्थान पर माओ के चीन को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाए जाने पर जोर देता रहा। नेहरु तब भी शायद यह सोचते हों कि चीन भारत के इन प्रयासों से प्रसन्न होकर मित्रता का हाथ बढ़ा दे । उस काल में भी सीमांत को मजबूत करने में भारत की सक्रियता कम ही दिखाई दी। चीन ने इसको भलीभाँति पहचान लिया था ।
अलबत्ता यहाँ तक भारतीय सेना का सवाल है, उसने 62 के पाँच साल बाद सितम्बर 1967 में सिक्किम के नाथुला में चीन की सेना को ठीकठाक जबाब दे दिया था। चीनी सेना ने इस इलाक़े में हमला कर आगे बढ़ने की कोशिश की लेकिन भारतीय सेना मे उसका मुँह तोड़ जबाब ही नहीं दिया बल्कि भविष्य का सबक़ भी पढ़ा दिया था। लेकिन असली जबाब तो भारत सरकार को ही देना था। दुर्भाग्य से वह जबाब कभी नहीं दिया गया।
1962 में भारत की सेना, चीन से ख़ाली हाथों से लड रही थी और उसके बाद बँधे हाथों से लड़ने लगी। 1967 में तो किसी उत्साही सैनिक अधिकारी ने मौक़े की नजाकत को देखकर स्वयं ही अपने हाथ खोल लिए थे। लेकिन चीन जानता था कि सीमा पर तैनात सैनिकों के हाथ बाँध कर रखना भारत सरकार का नीतिगत फैसला था, इसलिए हर बार उसका उल्लंघन संभव नहीं है। इस सबसे चीन का हौसला बढ़ना लाजिमी ही था। यही कारण है कि चीन सरकार उत्तरी सीमांत के अतिक्रमण का प्रयोग 1962 के बाद से निरन्तर करती आ रही है। वह भारतीय सीमा का गाहे बगाहे अतिक्रमण करती है। बातचीत के बाद पीछे भी चली जाती है। लेकिन इस प्रयोग से वह भारत सरकार की इच्छा शक्ति और भारतीय सेना का स्टेमिना परखती है। सेना ने तो अपना स्टेमिना नाथुला में दिखा दिया था और चीन को वह समझ भी आ गया था। लेकिन चीन को तो दिल्ली का रवैया परखना होता है। चीन का मानना था कि भारत सरकार का यह रवैया ढुलमुल ही रहता है। इसी को ध्यान में रख कर चीन भारत के प्रति अपनी भविष्य की रणनीति तय करता है।
लेकिन पिछले कुछ साल से चीन के इस प्रयोग से वह परिणाम नहीं आ रहे जो आज तक आते रहे हैं। 2017 में सिक्किम का डोकलाम तो इसका एक उदाहरण है। चीन लम्बे अरसे से चुम्बी घाटी पर आँख लगाए बैठा है। तीन साल पहले उसने डोकलाम से यह प्रयास किया। 70 दिन से भी ज्यादा आमने सामने रहने के बावजूद भारतीय सेना अपने स्टैंड पर क़ायम रही। लेकिन चीन का संकट केवल डोकलाम नहीं है। उसकी चिन्ता का कारण दूसरा है। भारत ने भी चीन की तरह भारत-तिब्बत सीमा पर सैनिक जरुरतों को ध्यान में रखते हुए सड़कें बनाने का काम तेज कर दिया है। दौलत बेग ओल्डी को जोड़ने वाली सड़क बन गई है। गावलान घाटी में निर्माण हो रहा है। पंजाब में भनुपली से हिमाचल के बिलासपुर से होते हुए, लेह तक रेलवे लाईन बनाने का मामला भी फायलों से बाहर आने लगा है। भारत-तिब्बत-नेपाल के जंक्शन के नाम से जाने वाले लिपुलेख तक सड़क बन गई है। दूसरे स्थानों पर भी सड़क निर्माण का काम तेज हो गया है। चीन वही पुराना प्रयोग फिर कर रहा है। सीमा पर सैनिक जमावड़ा। फिर वार्ता के माध्यम से “फिलहाल” सड़क निर्माण के कार्य को रोक दिया जाता है, जैसे निर्णय की प्रतीक्षा। लेकिन चीन के दुर्भाग्य से भारत सरकार ने स्पष्ट कर दिया है वार्ता तो चलती रहेगी लेकिन सड़कें भी बनती रहेंगी। यह चीन को चीन की भाषा में जबाब है ।
चीन का एक संकट और भी है। उसे अपने व्यापार के लिए सागर चाहिए। साउथ चीन सागर पर उसके दावे को कोई स्वीकार नहीं कर रहा। भारत डट कर वियतनाम के साथ खड़ा है। अमेरिका भी सार्थक चीन सागर को केवल चीन के हवाले कैसे कर सकता है? उसे समुद्र के लिए रास्ता चाहिए और वह गिलगित, बलूचिस्तान से होता हुआ ग्वादर तक पहुँचता है। इसलिए चीन ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा के नाम पर बहुत सा पैसा गिलगित और ग्वादर में झोंक रखा है। इस गलियारे की सड़क गिलगित में से होकर जाती है। गिलगित जम्मू कश्मीर का हिस्सा है, जिस पर नेहरु की अदूरदृष्टि और माऊंटबेटन दम्पत्ति की कृपा दृष्टि से पाकिस्तान ने क़ब्जा कर रखा है। जम्मू कश्मीर भारत का उसी प्रकार हिस्सा है जिस प्रकार हरियाणा और बिहार, इसको लेकर भारतीयों को तो कोई शक नहीं। लेकिन नेहरु ने बहुत परिश्रम करके भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 डाल रखा था, जिसके कारण विदेशों में जम्मू कश्मीर की सांविधानिक स्थिति के बारे में भ्रम बना रहता था। कभी पंडित नेहरु यह मामला सुरक्षा परिषद में ले गए थे, इससे भारत के दुश्मनों को यह भ्रम फैलाने का एक आधार मिला हुआ था। नरेन्द्र मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 के सारे जहर को भारतीय संविधान से निकाल दिया है जिसके कारण दूसरे देशों का भी भ्रम धीरे धीरे दूर होने लगा है। यही कारण है अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का सबसे ज्यादा कष्ट पाकिस्तान और चीन को ही हुआ। अनुच्छेद 370 समाप्त ही नहीं हुआ बल्कि जम्मू कश्मीर को भाषा के आधार पर पुनर्गठित कर, लद्दाख, गिलगित और वलतीस्तान को लद्दाख के नाम से अलग केन्द्र शासित राज्य बना दिया गया है और जम्मू, कश्मीर, मुज्जफराबाद, मीरपुर इत्यादि को जम्मू कश्मीर के नाम से अलग केन्द्र शासित राज्य बना दिया गया। भारत की राजनीति में गिलगित वलतीस्तान एक बार फिर केन्द्र बिन्दु में आ गया है। चीन की चिन्ता का सबसे बड़ा कारण यही है, क्योंकि उसकी भावी आर्थिक नीति इसी गिलगित में से होकर गुजरती है।
इधर कोरोना ने उसकी खाट खड़ी कर दी है। प्रश्न यह नहीं है कि उसने इस बीमारी पर काबू पा लिया या नहीं। इस प्रश्न पर तो बहस चलती ही रहेगी। लेकिन इसका उत्तर मिलने से पहले ही अनेक विदेशी कम्पनियाँ चीन से अपना बोरियाँ विस्तार समेट रही हैं। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि अधिकांश कम्पनियाँ भारत में आने की इच्छुक हैं। योगी अदित्यानाथ इसकी तैयारी में भी लगे हैं। चीन यह कैसे सहन कर सकता है? वह सीमा पर जमावड़ा और झड़पों से दुनिया को यह संकेत देना चाहता है कि भारत भी निवेश के ल्ए सुरक्षित नहीं है।
भारत-तिब्बत सीमा पर चीन द्वारा तनाव बढ़ाने का कारण मुख्य रूप से यही है। लेकिन चीन इस बार गच्चा खा गया लगता है। दिल्ली में इस बार जो सरकार है वह भारत भूमि के एक एक ईंच को भारत माता मानती है न कि जमीन का वह बंजर टुकड़ा जहाँ घास का तिनका तक नहीं उगता। और जहाँ तक विदेशी कम्पनियों द्वारा निवेश किए जाने का सवाल है, उसकी आहट को सीमा की झड़प शायद ही रोक पाए क्योंकि सभी जानते हैं चारों ओर से घिरा चीन इस समय लड़ने की स्थिति में नहीं है।