गोपालकृष्ण गांधी – लेखक पूर्व प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं।
दैनिक भास्कर, 2 अप्रैल, 2012
चौदहवें दलाई लामा हमारे मध्य मौजूद हैं, इस बात को हम भूल-से जाते हैं। वे ठीक हमारे बीच रहते हैं, हमारे मध्य सफर करते हैं, सबसे मिलते हैं, दुखी लोगों को दिलासा देते हैं, भावुकों को सांत्वना देते हैं और बच्चों जैसी नादानी से हंसते-हंसाते हैं। यह बात हमारे जेहन में होते हुए भी, हमारी समझ में आज तक ठीक से उतरी नहीं है।
वे अनेक व्याख्यान देते हैं, छोटे-बड़े समूहों में और गौतम बुद्ध के प्रतीक की हैसियत से, उनके प्रतिनिधि की भूमिका अपनाते हुए, उनके आदर्शो का पालन करते हुए, उनकी 2500 वर्ष पुरानी प्रतिभा को आज अपने उदाहरण से पुनर्जीवित करते हैं, इस बात को हम जानते हुए भी अनजाना-सा कर देते हैं। इस विस्मरण में क्षति न भगवान बुद्ध है, न दलाई लामा की। क्षति है हमारी और वह क्षति भीषण है।
नियति के दर्द-भरे खेल के फलस्वरूप दलाई लामा के भारत आगमन से और उनके साथ हजारों तिब्बतियों के भारत आने से भारत को एक प्रकार से उस ही नियति ने एक अनमोल रत्न प्रदान किया है।
बौद्ध धर्म भारत से तिब्बत गया और फिर तिब्बत से शरणार्थी रूप में भारत लौटा है। भारत ने हमारे प्राचीन पड़ोसी चीन की तिब्बत नीति के यथार्थ को स्वीकारा है। इसमें भारत ने राजनयिक विवेक और राजनीतिक कौशल दिखाया है। साथ ही भारत ने दलाई लामा के आध्यात्मिक व्यक्तित्व और उनकी व्यक्तिगत प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें एक सम्मानित अतिथि का स्थान और दर्जा दिया है। इसमें भारत ने मानवीय अनुराग और सांस्कृतिक गहराई दर्शाई है।
इस संतुलित नीति और प्रबंध का श्रेय जाता है हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को। उनके बाद भारत के हर प्रधानमंत्री और सरकार ने उस प्रबंध को ज्यूं का त्यूं बनाए रखा है। इस संतोषजनक स्थिति को देखते हुए हमें लग सकता है कि जहां तक दलाई लामा और तिब्बत का मुद्दा है, जो-जो हमें करना था, वह हम कर चुके हैं और जो नहीं करना चाहिए था, वह हमने नहीं किया है तो कुल-मिलाकर सब ठीक है। ‘वी आर ऑल राइट’।
लेकिन ‘ऑल राइट’ होना एक बात है और ‘राइट’ होना, सही होना दूसरी बात। क्या कहीं कुछ कसर है? मेरी समझ में हां, और उस कसर का भारत-चीन संबंध से कोई मतलब नहीं है। वह कसर एक और संबंध में है – हमारे संबंध अपने ही निज से।
यानी हमारे ही बीच दलाई लामा उपस्थित हैं एक अद्भुत मनोबल लिए, एक मौलिक दर्शन लिए और हम पहचान नहीं पा रहे हैं, उनकी सीख का सही उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। उनकी आध्यात्मिक उपस्थिति का महत्व न समझ पाना, हमारे बीच विद्यमान एक अनमोल रत्न को न पहचान पाना और नियति के उस उपहार से वंचित रहना, यह एक कसर है।
गत सप्ताह दिल्ली में दलाई लामा ने तीन दिन में तीन व्याख्यान दिए। मैं व्याख्यान का सारांश यहां नहीं देने वाला, पाठक घबराएं ना। मेरे शब्दों में उनकी वाणी की खूबी न रहेगी। केवल दो-एक उदाहरण पाठक के सम्मुख रखता हूं।
दलाई लामा ने कुछ आम अवगुणों का वर्णन किया। जिस तरह दलाई लामा ने उन्हें चुना और अपने सहज तरीके से उनका वर्णन किया, उससे श्रोतागण सहम गए। इन अवगुणों में थे : पाखंड, अहंभाव, स्वार्थ, अकारुण्य और महत्वाकांक्षा। मुझ समेत हर श्रोता ने खुद को इन अवगुणों में और अवगुणों को खुद में पाया।
इधर पाखंड की सफेद टोपी दिख रही थी तो उधर अहंभाव का रेशमी आस्तीन। इधर स्वार्थ का गजों लंबा पश्मीनाई शॉल तो उधर अकारुण्य की नुकीली जूती। और महत्वाकांक्षा का वह तेज इत्र, जो कि देह की बू को छिपाता और ढंकता है, उसे दूर नहीं करता। कहीं पद-लोलुपता की लार तो कहीं पद-विलासिता की पीक। और कहीं न कहीं, और बार-बार मैंने भी उन छवियों में अपने को देखा-जाना।
दलाई लामा ऐसे व्यक्ति नहीं कि अवगुण औरों में देखें, दिखाएं और स्वयं अपने को, अपने धर्म को, गुणों-सदगुणों की माला पहनाएं। उन्होंने तर्जनी तिब्बत पर भी टिकाई। वे बोले तिब्बत में कई बुद्ध अनुयायियों को महंगे वस्त्र पहनने की इच्छा हुई है। उन्होंने कहा यह सर्वथा गलत है, जैसे कि कुछ अन्य मतों के धर्मावलंबियों में बेशकीमती अंगूठियां और आभूषण पहनने का रिवाज भी खटकता है।
हम कह और पूछ सकते हैं : ‘इस सबमें बताइए ऐसी कौन-सी नई बात है? क्या यह उपदेश सदियों से हमें मिलते नहीं आए हैं?’ उत्तर होगा, ‘हां, इन बातों में कोई नवेली नहीं, सदियों से हमने संतों और महापुरुषों से इन उपदेशों को सुना है।’ तो फिर, वही पुरानी बात हुई? चलिए, एक और सदाचारी आदमी अच्छी कोशिश कर रहा है हमारे भटके हुए जमाने को ही रास्ते में लाने की.. इतना ही हुआ ना?
इतना ही? यह ‘इतना’ ‘कितना’ है, इस पर गौर करें। सद्बुद्धि और सन्मति देने वाला यह आदमी ऐतिहासिक पीड़ाओं को सहन करता आया है, और वह भी हंसते-हंसते। बौद्ध धर्म में ही नहीं, परोपकार में मग्न, वह अपने को पूर्णत: भूल गया है, अपने अध्यात्म को औरों के धर्मो से ऊंचा नहीं मानता, हमें गुरु और खुद को चेला मानता है, उसको आज तक भारत रत्न न प्रदान किए जाने पर कोई रंज-गिला नहीं, और न ही नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त कर चुकने पर घमंड।
अनासक्ति सिखाने वाला यह इंसान अपने में भी अनासक्ति की खोज करता है। बुद्ध के इस श्रेष्ठ उपासक ने अपने व्याख्यान में एक बात कही, जिसको सुनकर मैं सुन्न रह गया। दलाई लामा ने कहा ‘मैं उस ‘डिटैचमेंट’ में विश्वास रखता हूं, जो कि मुझे बुद्ध का अनुयायी बनाए रखते हुए भी बुद्धिज्म से ‘डिटैचमेंट’ दे’!
नतवहम कामाये राज्यम्, ना स्वर्गम्, ना अपुनर्भवम्, कामाये दुक्ख तप्तानाम प्राणिनाम अर्थनाशनम्।
चौदहवें दलाई लामा ‘दीया तले अंधेरा’ को जानने वाले समाज में, अंधेरे तले एक दीया हैं। वे एक आलोक हैं।