dalailama.com /२१ अप्रैल, २०२३
नई दिल्ली, भारत। परम पावन दलाई लामा जब वैश्विक बौद्ध शिखर सम्मेलन- २०२३ में हिस्सा लेने २१ अप्रैल की सुबह नई दिल्ली के अशोका होटल पहुंचे तो उनका स्वागत अंतरराष्ट्रीय बौद्ध परिसंघ (आईबीसी) के महानिदेशक डॉ़ अभिजीत हलदर और आईबीसी के महासचिव श्रद्धेय डॉ़ धम्मपिया ने किया। शिखर सम्मेलन के आयोजकों ने परम पावन को सभागार तक ले जाने के लिए एक गोल्फ कार्ट की व्यवस्था की थी। जब परम पावन ने कमरे में प्रवेश किया तो पूरी सभा उनके सम्मान में खड़ी हो गई।
परम पावन मंच पर सबसे पहले वहां स्थापित बुद्ध की मूर्ति के समक्ष जाकर नतमस्तक हुए। इसके बाद, उन्होंने मंच पर उपस्थित विभिन्न गणमान्य बौद्ध व्यक्तियों का अभिवादन किया। अपने आसन की ओर बढ़ते हुए वहां बैठने से पहले उन्होंने हॉल में एकत्रित लोगों को प्रणाम किया।
मंच पर परम पावन की बाईं ओर परम पावन भिक्षु खंबा लामा गब्जू चोइजामत्स डेम्बरेल (मंगोलिया), चामगोन केंटिंग ताई सितुपा (तिब्बत), श्रद्धेय भिक्षु धम्म शोभन महाथेरो (नेपाल) और परम पवित्र थिच थिएन टैन (वियतनाम) बैठे थे। उनकी दाहिनी ओर परम आदरणीय वास्कादुवे महिंदवांस महानायके थेरो (श्रीलंका), परम आदरणीय अभिधजमहारहथागुरु सयादव डॉ अशिन न्यानिसारा (बर्मा), परम पावन ४३वें शाक्य त्रिज़िन, खोंडुंग ज्ञान वज्र रिनपोछे (तिब्बत), महामहिम पद्म आचार्य कर्म रंगडोल (भूटान), महामहिम क्याब्जे योंगज़िन लिंग रिनपोछे तेनज़िन लुंगटोक थिनले चोफाक (तिब्बत) और श्रद्धेय डॉ. धम्मपिया (भारत) बैठे।
श्रद्धेय डॉ़ धम्मपिया ने परम पावन, आदरणीय अतिथियों और श्रोताओं का स्वागत करते हुए प्रातः की कार्यवाही शुरू की। उन्होंने कहा कि कल, शिखर सम्मेलन ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विकसित हुई विभिन्न बौद्ध परंपराओं के बारे में सुना। इनमें से प्रत्येक बुद्ध शाक्यमुनि की शिक्षा रूपी एक ही मूल से उगने वाले अलग- अलग रंग के फूल की तरह हैं। बुद्ध ने अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग क्षमता के अलग-अलग लोगों को अलग-अलग शिक्षाएं दी।
उन्होंने सुझाव दिया कि बौद्ध संघ के सभी समुदायों को आज दुनिया में हमारे सामने मौजूद चुनौतियों का समाधान करने के लिए आगे आने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हम सभी इंसान हैं। हम एक- दूसरे से इतने अलग नहीं हैं। हम एक ही हवा और एक ही पानी का उपयोग करते हैं। इसलिए, हमें विश्व शांति को बढ़ावा देने, धरती माता की रक्षा करने और करुणा की साधना करने के लिए वैश्विक दृष्टिकोण अपनाना होगा। हम सभी की मदद के लिए हमें सभी धार्मिक परंपराओं में निहित सार्वभौमिक मूल्यों को अपनाने करने की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा, ‘आइए, सभी प्राणियों के कल्याण और आनंद के लिए बुद्ध की शिक्षाओं को बढ़ावा देने के लिए और सामंजस्यपूर्ण एकता में काम करने के लिए हाथ मिलाएं।‘
संचालक कर्नल राजेश जिंदल ने थेरवादिन भिक्षुओं के एक समूह का परिचय कराया, जिन्होंने पाली में शुभ श्लोकों का पाठ किया। उनके बाद संस्कृत परंपरा के भिक्षुओं ने तिब्बती में जाप किया।
जिंदल ने बताया कि परम आदरणीय अभिधजामहरथागुरु सयादव डॉ़. अशिन न्यानिसार (बर्मा) को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था, लेकिन वे उपस्थित नहीं हो सके। उनकी ओर से उनका संदेश पढ़ा गया। इसमें उन्होंने एक अच्छे हृदय के विकास और उसमें निहित प्रेम, करुणा और क्षमा के गुणों पर बल दिया।
उन्होंने कहा कि अगर लोगों के दिलों में शांति नहीं है तो दुनिया में शांति नहीं होगी। दिलों की शांति को प्राप्त करने का एकमात्र तरीका अंतर्दृष्टि ध्यान की साधना करना है। जिस प्रकार करुणा का विकास हमें एक नकारात्मक मन को सकारात्मक में बदलने में सक्षम बनाता है, उसी तरह ध्यान हमें एक संतुलित मन प्राप्त करने में मदद करता है। परम आदरणीय का संदेश इस कामना के साथ संपन्न हुआ कि दुनिया भर में शांति और सद्भाव कायम रहे।
कर्नल जिंदल ने शिखर सम्मेलन में बौद्ध धर्म के अकादमिक अध्ययन का प्रतिनिधित्व करने के लिए परम पावन दलाई लामा के एक बहुत पुराने शिष्य प्रोफेसर रॉबर्ट थुरमन का परिचय कराया। थुरमन ने अपने वक्तव्य को इस निवेदन के साथ प्रारंभ किया कि वह परम पावन के सामने बोलने में थोड़ा डरा हुआ महसूस कर रहे हैं। हालांकि अवलोकितेश्वर की प्रार्थना करके उन्होंने इसकी भरपाई कर दी। उन्होंने कहा कि परम पावन यह भी घोषणा कर चुके हैं कि विश्व शांति आंतरिक शांति से आती है और लोगों को ऐसी शांति प्राप्त करने के तरीकों के बारे में शिक्षित करने की आवश्यकता है।
थरमन ने याद किया कि कल शिखर सम्मेलन में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की थी कि भारत ऐतिहासिक रूप से अहिंसा के समर्थन में यानि, कोई नुकसान नहीं करने के लिए समर्पित रहा है। यह महत्वपूर्ण है जब लोगों की जान लेने के बजाय खुद के मरने को तैयार होने की बात आती है। थरमन ने उल्लेख किया कि बुद्ध का जन्म एक योद्धा परिवार में हुआ था, लेकिन उन्होंने अपने मन में अस्पष्टता को दूर करने के लिए उस तरह का जीवन त्याग दिया।
नालंदा जैसे महान भारतीय विश्वविद्यालयों ने शिक्षा के लिए एक दृष्टिकोण विकसित किया, जिसने प्रतिभागियों को वास्तविकता की प्रकृति को समझने में सक्षम बनाया और मनोविज्ञान के संदर्भ में यह बताया कि मन को कैसे बदलना है। नालंदा के मुख्य पाठ्यक्रम को गदेन, डेपुंग और सेरा के महान मठों में संरक्षित किया गया है जो वर्तमान में दक्षिण भारत में फिर से स्थापित किया गया है।
उन्होंने आगे बताया मरने के बाद कुछ भी नहीं रहने का जो सामान्य वैज्ञानिक और भौतिकवादी दृष्टिकोण है, वह नैतिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है। यदि मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं रहने की बात मान ली जाए तो हमें अपने कार्यों के परिणामों को भुगतने में भी विश्वास करने की आवश्यकता नहीं होगी। उन्होंने अंत में कहा कि इसके बजाय हमें हर किसी की सेवा करने के तरीके खोजने होंगे।
इसके बाद, कर्नल जिंदल ने परम पावन को उनके संबोधन के लिए आमंत्रित किया। परम पावन ने तिब्बती में सभा को संबोधित किया, जिसका अंग्रेजी में अनुवाद डॉ. थुबतेन जिनपा ने किया। परम पावन ने संबोधन की शुरुआत बुद्ध शाक्यमुनि की वंदना में एक श्लोक का पाठ करने के साथ की।
परम पावन ने स्पष्ट किया कि बुद्ध की शिक्षा को जो चीज परिभाषित करती है वह प्रतीत्य समुत्पाद की उनकी व्याख्या है। इसके लिए तिब्बती में दो शब्द हैं- ‘दस-जंग’। इनमें से दस का अर्थ आश्रित होना और दूसरे जंग का अर्थ होता है- उत्पन्न होने वाला। इससे हमें वास्तविकता का बोध होता है। सब कुछ आश्रित है। कुछ भी स्वतंत्र नहीं है। चीजें अन्य कारकों पर निर्भर रहते हुए उत्पन्न होती हैं। चूंकि कुछ भी स्वतंत्र नहीं है इसलिए सब कुछ निर्भर संबंधों के माध्यम से आता है।
उन्होंने आगे और स्पष्ट करते हुए बताया कि प्रतीत्य समुत्पाद को समझना क्यों महत्वपूर्ण है? वह इसलिए कि जब हमारे पास यह अंतर्दृष्टि नहीं होती है तो हम स्वयं को कुछ पर्याप्त और वास्तविक मानते हैं। बदले में यह ‘हम’ और ‘उन’ के बीच अंतर को चित्रित कर सकता है जो संघर्ष को जन्म देते हैं। हम अपने लोगों के प्रति आसक्ति करते हैं और दूसरों के प्रति घृणा विकसित करते हैं, जिन्हें हम अलग-अलग देखते हैं।
करुणा भी बुद्ध की शिक्षाओं के केंद्र में है। चंद्रकीर्ति अपने ‘मध्यम मार्ग प्रवेशिका’ की शुरुआत में ही करुणा के प्रति श्रद्धावनत होते हुए इसका संकेत देते हैं। वह करुणा की तुलना नमी वाले स्थल में पड़े एक ऐसे बीज से करते हैं जो बीज को बढ़ने में मदद करती है और अंत में उसका फल प्राप्त होता है।
बुद्ध की शिक्षा का मूल करुणा और प्रज्ञा का संयोजन है और बौद्धों के रूप में हमारा कार्य इन दोनों गुणों को विकसित करना है। ‘हम जिन समस्याओं का सामना करते हैं उनमें से कई इस बात से संबंधित होते हैं कि हम वास्तविकता को कैसे देखते हैं। हमारी सोचने की प्रवृत्ति यह होती है कि चीजें जिस रूप में दिखाई देती हैं, उसी रूप में उनका अस्तित्व होता है। हमारे सामने जो दिखाई देता है उसी से हम वास्तविकता का बोध कराते हैं। बुद्ध का शून्यवाद का उपदेश हमें यह समझने में मदद करता है कि हम जो देखते हैं वह वास्तविकता को प्रतिबिंबित नहीं करता है। ऐसा होने पर हम अपने आसक्ति और तृष्णा की भावनाओं पर काबू पा सकते हैं। और जब हम ऐसा करते हैं तो मन पवित्र हो जाता है।
एक बौद्ध होने के नाते हमें उस प्रक्रिया पर ध्यान देने की आवश्यकता है जिसके द्वारा हम वस्तुओं की वास्तविकता को ग्रहण करते हैं। यदि हमारी समस्याओं का कोई समाधान प्रस्तुत नहीं किया गया तो केवल पीड़ा पर ध्यान केंद्रित करना मनोबल गिराने वाला होगा। जब हम वास्तविकता में अंतर्दृष्टि प्राप्त करते हैं तो हम यह भी देख सकते हैं कि हमारे लिए ज्ञानोदय प्राप्त करना संभव है। इसलिए गहन चिंतन के परिणामस्वरूप हमें स्वतंत्रता का बोध होता है।
मैं इसके साथ जूझता रहता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि इससे मैं प्रगति कर रहा हूं। चंद्रकीर्ति कहते हैं कि जब आप वास्तविकता में गहरी अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सक्षम होते हैं तो पीड़ित प्राणियों के लिए करुणा स्वाभाविक रूप से पैदा होती है। वह कहते हैं कि अंतर्दृष्टि और करुणा रूपी दो पंखों पर हम मोक्ष की ओर और आगे बढ़ेंगे। मैं अब अपने ८० के दशक के अंत में हूं, लेकिन मैं साधना जारी रखता हूं और तैयारी के साथ मोक्ष मार्ग पर पहुंचने की आकांक्षा रखता हूं।‘
परम पावन ने उल्लेख किया कि तिब्बती परंपरा में तंत्र और देवताओं का ध्यान करना भी शामिल है, पर उन्हें लगता है कि जो वास्तव में चित्त पर प्रभाव डालता है वह ज्ञान, वास्तविकता को गहरे देखने की अंतर्दृष्टि और सभी प्राणियों के लिए करुणा की साधना है। ये वे रिवाज हैं जिन्होंने मनुष्य को अपने मन को बदलने में सबसे अधिक सक्षम बनाया है।
उन्होंने खुलासा किया कि चूंकि यह बुद्ध के अनुयायियों का एक समूह है, इसलिए वह यह दिखाने के लिए अपने स्वयं के अनुभव बता रहे हैं कि यदि हम अपने बौद्ध साधना को गंभीरता से लेते हैं, वास्तविकता की गहराई से जांच करते हैं और करुणा का पोषण करते हैं, साथ ही विश्राम और विश्लेषणात्मक ध्यान की प्रथाओं को भी परिष्कृत करते हैं तो यह हमारे दैनंदिन जीवन में बदलाव लाएगा। उन्होंने बताया कि हम सभी ज्ञान के उच्च स्तर की आकांक्षा कर सकते हैं। इसलिए, उन्होंने अपने श्रोताओं से उचित प्रयास करने का आग्रह किया।
उन्होंने आगे अपना वक्तव्य जारी रखते हुए कहा, ‘अनुष्ठान महत्वपूर्ण नहीं हैं। हमें जो चाहिए वह है विश्राम और विश्लेषणात्मक ध्यान की साधना, वास्तविकता की समझ और करुणा की साधना। ये उस प्रकार की शिक्षाएं हैं जो आपके भीतर जीवंत हो उठती हैं, इसलिए वे प्रयास करने योग्य हैं।‘
‘मैं आपको यह भी आश्वासन दे सकता हूं कि करुणा पर साहस के साथ ध्यान देने से आप प्रतिकूल परिस्थितियों को अवसर में बदल सकते हैं।‘ ‘मैं उत्तर-पूर्व तिब्बत में पैदा हुआ था और ल्हासा आया था जहां मैंने बौद्ध आचार्यों के लेखन का अध्ययन किया जिन्होंने ज्ञान और करुणा को विकसित करने के तरीके प्रस्तुत किए। उनकी सलाह का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। एक अन्य कारक जो बौद्ध धर्म को बाकी धर्मों से अलग करता है वह आंतरिक परिवर्तन को प्रभावित करने वाले साधनों का व्यापक संग्रह है। यह ध्यान साधनाओं में बहुत समृद्ध है जिसका हमारे दिन-प्रतिदिन के आचरण पर प्रभाव पड़ता है। बुद्ध धर्म को अपने जीवन में शामिल करना हमें अपने शिक्षकों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का एक तरीका है।‘
शरत्से खेंसूर जांगछुब छोदेन ने धन्यवाद ज्ञापन किया। उन्होंने परम पावन को उनके वाक्पटु और प्रगतिगामी संबोधन के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा, ‘आप इस ग्रह पर कई लोगों के लिए एक प्रेरणा हैं, कुछ ऐसी प्रेरणा के, जो आने वाली पीढ़ियों में जारी रहेगी। हमें आपकी सलाह और मार्गदर्शन की आवश्यकता है- कृपया दीर्घायु हों।‘ उन्होंने प्रोफेसर रॉबर्ट थुरमन और सितागु सयाडॉ को उनके योगदान के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने मंच पर उपस्थित अन्य अतिथियों तथा सभागार में उपस्थित अन्य प्रतिभागियों को आने के लिए धन्यवाद दिया। मध्याह्न भोजन के पहले तक अंतरराष्ट्रीय बौद्ध प्रतिनिधिमंडलों के प्रमुखों के साथ एक बैठक में परम पावन ने दुनिया भर में बौद्ध धर्म में बढ़ती रुचि का उल्लेख किया। इसके कारण के उपयोग को उन्होंने इस समय इसके आकर्षण का एक हिस्सा बताया।
डॉ. धम्मपिया ने परम पावन को भविष्य में प्राणियों के लाभ के लिए बार-बार यहां आने के लिए अनुरोध किया। परम पावन ने उत्तर दिया कि यह तो उनके द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली प्रार्थनाओं के अनुरूप है, विशेष रूप से शांतिदेव के ‘बोधिसत्व मार्ग में प्रवेश’ से एक छंद का हवाला देते हुए उन्होंने कहा:
जब तक अंतरिक्ष है,
और जब तक संवेदनशील प्राणी रहेंगे,
तब तक मैं भी रहूं
दुनिया के दुख को दूर करने में मदद करने के लिए। १०/५५
परम पावन ने अध्ययन और जांच के महत्व पर बल देने का एक बिंदु बनाया। उन्होंने खुलासा किया कि बुद्ध ने अपने अनुयायियों को प्रोत्साहित किया कि वे अंधविश्वास के आधार पर उनकी शिक्षाओं को स्वीकार न करें बल्कि इसकी अच्छी तरह से जांच और परख कर लें।
उन्होंने स्मरण किया कि आठवीं शताब्दी में तिब्बत के राजा ठिसोंग देचेन ने चीनी ह्वशांग ध्यानियों और भारतीय आचार्य कमलशील के बीच शास्त्रार्थ का आयोजन कराया था। जब राजा ने कमलशील को विजेता घोषित किया और चीनी भिक्षुओं से तिब्बत छोड़ने का अनुरोध किया तो उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि भारतीय परंपरा इस बर्फीले पठार में बौद्ध धर्म की मुख्यधारा बने।
परम पावन ने घोषित किया कि तिब्बती बौद्ध नालंदा के महान दार्शनिक और तर्कशास्त्री शांतरक्षित और उनके शिष्य कमलशील के आभारी हैं कि उन्होंने तर्क और शास्त्रार्थ को महत्व दिया। एक बार फिर अपने स्वयं के अनुभव को याद करते हुए परम पावन ने समझाया कि जब वे तिब्बत में अध्ययन कर रहे थे, तो उन्हें न केवल अपने शिक्षकों से बल्कि परिश्रमी सहायकों के एक दल से भी बहुमूल्य सहायता मिली। अब जब वे उन दिनों को याद करते हैं तो वह वास्तव में खुद को उन सभी का ऋणी महसूस करते हैं। सभा समाप्त होने से पहले उन्होंने बौद्ध प्रतिनिधिमंडलों के प्रमुखों को बुद्ध की एक-एक मूर्ति भेंट की। इसके बाद परम पावन ने शिखर सम्मेलन से अपने निवास की ओर प्रस्थान किया।