तिब्बत पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के विचार
(१० जुलाई, १९५९ को नई दिल्ली के सप्रू हाउस में विश्र्व मामलों की भारतीय परिषद के समक्ष भाषण)
मैं पहले यह बात स्पष्ट कर दूं कि तिब्बत पर मेरा नजरिया इस कारण नहीं बना है कि मै चीन का विरोधी हूं और यह चाहता हूं कि उसे नुकसान पहुंचे। तिब्बत पर मेरा नजरिया वर्तमान परिस्थितियों के कारण बना है और मेरा यह मानना है कि जब एक मित्र गलत रास्ते पर जा रहा हो तो यह कर्तव्य होता है कि उसे दृढ़ता से इस बारे में बताया जाए। इस भाव से ही मै चीन की आलोचना कर रहा हू। दलाई लामा तिब्बत के लोगों की वास्तविक आवाज हैं और वह उनकी जिस तरह से पूजा करते हैं उतनी दुनिया में किसी भी अन्य जीवित व्यक्ति की नहीं होती।
तिब्बत पर विशेष नियंत्रण के अलावा परम पावन दलाई लामा की एक अंतरराष्ट्रीय हैसियत और व्यक्तित्व है। समूचे बौद्ध दुनिया में विशेषकर मंगोलिया व स्वयं चीन में और उन सभी क्षेत्रों में जहां बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रसार हुआ है दलाई लामा को सर्वोच्च आध्यात्मिक नेता का सम्मान प्राप्त है।
मै समझता हूं कि वर्तमान परिस्थितियों के मुख्य तत्व इस प्रकार हैं:-
१. दलाई लामा ने तिब्बत की आजादी को अपना लक्ष्य घोषित किया है।
२. उन्होंने कहा कि उनकी सरकार को १९५१ के चीन-तिब्बत समझौते पर इसलिए हस्ताक्षर करना पड़ा क्योंकि चीन की हमलावर सेना ने उनके सामने और कोई विकल्प नहीं छोड़ा और उन्होंने यह भी कहा कि समझौते में स्वायत्तता की शर्त चीन ने जबरन शामिल करवाई।
३. उन्होंने इन तथ्यों को भी उजागर किया कि तिब्बत में बडे पैमाने पर और बर्बर ढंग से तिब्बती लोगों का दमन किया जा रहा है जिसमें व्यापक जनसंहार और चीनी अधिकारियों द्वारा तिब्बती लोगों का जबरन निर्वासन शामिल है।
४. उन्होंने यह भी बताया कि तिब्बत में बडे पैमाने पर चीनी लोगों की बस्ती बसायी जा रही है।
५. उन्होंने यह रहस्योद्घाटन भी किया कि किस प्रकार चीनी लोग उदात्त बौद्ध धर्म को सुनियोजित रूप से नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं।
६. इन सब घटनाओं के बावजूद उन्होंने तिब्बत के मुद्दे के शांतिपूर्ण समझौते की इच्छा जाहिर की है।
७. तिब्बतियों के साथ अन्याय न हो यह सुनिशिचत करने के लिए उन्होंने भारत व दुनिया के अन्य देशो से सहायता करने की अपील की है।
इसमें सबसे पहला बिन्दु उन लोगों का दृष्टिकोण है जिन्होंने अधिराज्य के फॉर्मूले को कभी स्वीकार नहीं किया है और जो हमेशा तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में दृढ़ रहे हैं। उनके लिए तिब्बत की घटनाएं और दलाई लामा की घोषणा उनक दृष्टिकोण की पुष्टि है। दूसरा बिंदु उन लोगों का दृष्टिकोण है जिन्होंने स्वायत्तता के साथ अधिराज्य फॉर्मूले को स्वीकार कर लिया है। यह जानकर दुख होता है कि उन देशो ने भी यह फॉर्मूला स्वीकार कर लिया है जिन्हें हाल में ही आजादी मिली है। तिब्बत की राष्ट्रीय स्वतंत्रता के अधिकार को बिना किसी शर्त के स्वीकार करना चाहिए।
हाल में जब ब्रिटिश पार्लियामेंट में तिब्बत के प्रति महारानी सरकार की नीति के बारे में एक प्रशन किया गया तो विदेश मंत्री की तरफ से जवाब देने वाले आर. एलेन ने कहा कि हम एक लंबे समय से तिब्बत पर चीन के अधिराज्य को मान्यता देते रहे हैं, लेकिन यह मान्यता इस समझ पर आधारित रही है कि तिब्बत की स्वायत्तता बनी रहेगी।’ महारानी सरकार की अब भी यही नीति है। श्री एलेन के बयान से ब्रिटेन की नीति स्पष्ट हो गयी है कि अधिराज्य को मान्यता इस समझ पर आधारित है कि तिब्बत की स्वायत्तता बनी रहेगी।
यह अलग बात है कि तिब्बत बहुत समय तक स्वायत्त नहीं रहा, चीन ने सुनियोजित रूप से और मित्रों की सलाह व चेतावनी को दरकिनार कर ताकत के प्रयोग से तिब्बत की स्वायत्तता को समाप्त कर दिया है। इन बदली हुई परिस्थितियों में जो तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं और जो स्वायत्तता के मुद्दे से आगे जाने को तैयार नहीं हैं, इन दोनों पक्षों में मुशकल से ही कोई अंतर रह गया है।
जब एक स्वतंत्र देश पर हमला होता है तो इसे आक्रमण कहते हैं और अन्य देश इस आक्रमण को रोकने तथा पीडित को बचाने का प्रयास करते हैं। इन परिस्थितियों में स्वतंत्र राष्ट्र बिना किसी हिचक के अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं। तो क्या ऐसी परिस्थितियों में वह दूसरा व्यवहार करेंगे जब किसी देश की स्वायत्तता पर खतरा हो या उसे नष्ट कर दिया गया हो ? क्या १९५१ के चीन-तिब्बत समझौते जैसा अंतरराष्ट्रीय विषय सिर्फ चीन का निजी मामला हो सकता है। एक तीसरा दृष्टिकोण भी है जिसके आधार पर तिब्बत की हाल की घटनाओं को देखा जा सकता है। वह है, मानवता का दृष्टिकोण । तिब्बत के लोगों की दुर्गति और दुर्भाग्य, अन्याय और गलत कदम जिसका उन्हें शिकार होना पड़ा तथा उनके साथ किये गये अपराध एवं अत्याचार, यह सब सामूहिक रूप से हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि तिब्बत के मुद्दे को कानूनी व संवैधानिक वाद-विवाद के गुत्थियों से अलग ले जाकर साधारण मानवता के आधार पर उठाया जाए। तिब्बत में उठाया गया मानवीय मुद्दा सभी कानूनी व संवैधानिक तथा राजनयिक तकोर से परे है। यह स्वायत्तता बनाम स्वतंत्रता अथवा चीन के अधिकारों के मुद्दे पर बहस करने का समय नहीं है।
मै तिब्बत के मुद्दे पर समर्थन जुटाने , लोगों को संघटित करने तथा जनमत को सूचित करने का प्रयास कर रहा हूं और विभिन्न सरकारों, विशेषकर एशिया व अफ्रीका की सरकारों को भी तिब्बत पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। तिब्बत पर अफ्रो-एशियाई समिति गठित करने का हमारा प्रयास भी इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है। एशिया व अफ्रीका के नेताओं ने व्यक्तिगत रूप से इस मुद्दे पर अपना विचार प्रकट किया है लेकिन वह यदि मिलकर एकस्वर में बोलें तो इसका प्रभाव काफी व्यापक होगा।
जब ब्रिटेन व फ्रांस ने मिस्र में कार्रवाई की तो हमने बिना किसी भय के उनके कार्य की आलोचना की। जब हमने अल्जीरिया के राष्ट्रीय स्वतंत्रता का मुद्दा उचित ढंग से उठाया तब भी हम फ्रांस का विरोध करने से नहीं डरे।
इस संबंध में यह प्रशन उठाया जाता है कि चीन संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं है। मैने हमेशा प्रधानमंत्री के इस रूख का समर्थन किया है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश देना चाहिए। तिब्बत के मामले ने मेरे इस दृष्टिकोण को और स्पष्ट किया है। चीन इस समय राष्ट्रों के परिवार से बाहर है इसलिए उस पर संयुक्त राष्ट्र के किसी प्रकार के नैतिक दबाव की गुंजाइश नहीं है। मै समझता हूं कि चीन वर्तमान समय में अपने को और बेहतर स्थिति में पा रहा है। एक तरफ, वह किसी अंतरराष्ट्रीय पाबंदी से बंधा नहीं है तो दूसरी तरफ, वह संयुक्त राष्ट्र में अपने प्रवेच्च के अमेरिका द्वारा विरोध करने के मुद्दे को भुना कर अपने नागरिकों में इस आधार पर युद्धोन्माद पैदा कर रहा है कि पूरी दुनिया उसकी दुशमन बन गयी है।
हालांकि यहां मै एक बात स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि मै संयुक्त राष्ट्र में चीन की सदस्यता का समर्थन कर रहा हूं लेकिन मै यह नहीं समझता कि तिब्बत के मुद्दे को इस विश्र्व संगठन में उठाने में उसका सदस्य न होना कोई बाधा है।
मुझे यह पूरा विश्र्वास है कि दलाई लामा उस देश भारत को किसी परेशानी मेंनहीं डालना चाहेंगे जिसने उन्हें शरण दिया है। लेकिन हमें अपनी तरफ से उनकी स्थिति को समझना होगा। हमें यह भी समझना होगा कि दलाई लामा किसी तरह के परिवर्तन या उपदेश देने के लिए भारत में नहीं आये हैं। वह अपने देश और वहां के लोगों के लिए संघर्ष करने हेतु यहां आये हैं। यह बात कोई मायने नहीं रखती कि वह इसमें सफल होते हैं या असफल। उनकी जगह कोई भी देशभक्त व्यक्ति होता तो यही काम करता।
इसलिए हमें इस युवा को अपना कार्य करने की छूट देनी चाहिए और उन्हें यह उपदेशा देने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि वह किस तरह से कार्य करें। यह एक अलग मामला है कि हम उन्हें किस हद तक स्वतंत्रता देने को तैयार है। जब उन्होंने अपने संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि जहां कहीं भी वह अपने मंत्रिमंडल के साथ थे, तिब्बत के लोगों ने उन्हें तिब्बत की सरकार के रूप में सम्मान दिया, तो वह केवल सच बयान कर रहे थे, जो यह नहीं जानते थे कि तिब्बत विवाद का विषय बन जाएगा। यह उम्मीद करना कि दलाई लामा तिब्बत की स्वतंत्रता के आंदोलन को छोड देंगे और खुद को शुद्ध रूप से धार्मिक रूप से लक्ष्यों के प्रति सीमित रखेंगे, वास्तव में राष्ट्रवाद के आग्रह की ताकत को कम आंकना, दलाई लामा के व्यक्तिगत चरित्र को न समझ पाना और यह भूल जाना है कि उन्हें परंपरागतरूप से आध्यात्मिक व लौकिक शक्तियां व कार्य सौंपे गये हैं।
कुछ लोगों को आशचर्य हो सकता है कि मैं तिब्बत के आंदोलन से इतने उत्साह से क्यों जुडा हूं। मैं बताता हूं, पहला कारण यह है कि मै मानवीय स्वतंत्रता और सभी लोगों की स्वतंत्रता में विच्च्वास करता हूं। उदाहरण के लिए मैं समझता हूं कि अल्जीरिया की स्वतंत्रता भी उतनी ही ज+रूरी है जितनी तिब्बत की स्वतंत्रता । दूसरा कारण यह है कि मै अंतरराष्ट्रीय शांति न्याय की प्राप्ति के बिना असंभव है। तीसरा कारण यह है कि तिब्बत हमारा पड़ोसी है और इस नाते हमारा यह कर्तव्य है कि हम उसकी सहायता करें। चौथा कारण यह है कि एक हिंदू के रूप में मै गौतम बुद्ध का अनन्य भक्त हूं और सभी बौद्ध लोगों के साथ मै एक आध्यात्मिक जुड़ाव की अनुभूति करता हूं। पाँचवां कारण यह है कि जब से मैने परम पावन दलाई लामा को जाना है मै उनका गहरा सम्मान व उनसे प्रेम करने लगा हूं और अंतिम कारण यह है कि मै भी इतिहास के उन मूर्खों में से हूं जो निरंतर उन आदर्शो के लिए लड़ते रहते हैं जिन्हें दुनिया के समझदार, व्यावहारिक लोग हारी हुई लड़ाई मानते हैं।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण
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