चीन में यह रिवाज है कि सरकार जो कुछ कहना चाहती है, उसे सरकारी एजेंसी शिन्हुआ के माध्यम से कहती है। इसी माध्यम से चीन सरकार ने इसे गलत बताया है कि तिब्बत कभी स्वतंत्र देश था। वह हमेशा से चीन का एक हिस्सा रहा है। इसलिए तिब्बती स्वतंत्रता दिवस की 100वीं वर्षगांठ मनाना चीन के खिलाफ शत्रुतापूर्ण कार्रवाई है। चीन की सरकार का कहना है कि ऐतिहासिक तथ्य यह है कि तिब्बत 13वीं सदी में यूआन वंश के अधीन चीन का हिस्सा रहा है और तिब्बत में चीन की केंद्रीय सत्ता का शासन रहा है। 1288 में तिब्बत क्षेत्र के प्रशासन के लिए एक सैन्य एजेंसी बनाई गई।1911 में गणतांत्रिक चीन बनने के बाद तिब्बत को चीनी शासन के अधीन ही रखा गया। अंग्रेजों ने बीच-बीच में हमला करके तिब्बत पर अपना अधिकार जमाने का प्रयास अवश्य किया था। परंतु चीन ने इसे विफल कर दिया था।
इस बीच, कुछ महीनों पहले तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा ने यह कहकर राजनीतिक मामलों से अपने को अलग कर लिया कि वह अब बूढ़े हो चले हैं और तिब्बत के आंदोलन की कमान किसी नवयुवक को सौंपी जाए। उन्होंने कहा कि वह केवल धार्मिक मामलों में तिब्बतियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। अब तिब्बत की कमान हारवर्ड विश्वविद्यालय में पढ़े एक युवक लौबसांग सैंगी के हाथों में आ गई है, जिन्होंने कहा है कि हमें सच्चई समझनी चाहिए। चीन न तो आसानी से तिब्बत को आजाद करेगा और न आसानी से ससम्मान दलाई लामा को तिब्बत में प्रवेश करने की अनुमति देगा। इसलिए एक बीच का रास्ता निकालना चाहिए।
सच यह है कि चीन ने धोखे से 1951 में तिब्बत को हड़प लिया। उन दिनों तिब्बत भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट था। वैदेशिक और सुरक्षा के मामलों में भारत का ही वहां वर्चस्व था। उस समय तिब्बत में भारतीय मुद्रा चलती थी, भारतीय डाकघर थे, छोटी-सी भारतीय रेलगाड़ी भी चलती थी। आंतरिक सुरक्षा के लिए भारतीय पुलिस वहां तैनात थी तथा बाहरी सुरक्षा के लिए भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी भी दलाई लामा की मर्जी से वहां तैनात की गई थी। लौबसांग सैंगी जानते हैं कि वे दिन अब नहीं लौट सकते। इसीलिए अब वह बीच के रास्ते की बात करते हैं।