थेगछेन छोएलिंग, धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत। परम पावन दलाई लामा ०५ मई की सुबह अखिल भारतीय तिब्बत समर्थक समूहों में से एक- भारत- तिब्बत सहयोग मंच (बीटीएसएम) की स्थापना की २५वीं वर्षगांठ मनाने के लिए छुगलगखांग मंदिर के प्रांगण में आयोजित सभा में शामिल हुए। संस्था के मुख्य संरक्षक डॉ. इंद्रेश कुमार ने परम पावन के आवास के द्वार पर ही उनका स्वागत किया और फिर कुछ देर खड़े रहे। इस दौरान परम पावन के साथ मंच के सदस्यों की तस्वीरें ली गईं।
भारतीय पद्धति से स्वागत करते हुए परम पावन को फूल और दीप भेंट किया गया और उनके माथे पर तिलक लगाया गया। इसके बाद उनका पारंपरिक तिब्बती पद्धति से स्वागत किया गया, जिसमें ‘चेमा चांगपू’ शामिल था। इसके बाद परम पावन केंद्रीय गलियारे की ओर बढ़े, जहां पारंपरिक परिधानों में सुसज्जित तिब्बतियों ने उन्हें काटा यानि सफेद रेशमी स्कार्फ देकर उनका स्वागत किया। वह तिब्बती कला प्रदर्शन संस्थान (टीआईपीए) के ताशी शोल्पा नर्तकियों को देखने के लिए रुके। अपना आसन ग्रहण करने से पूर्व उन्होंने इस सामरोह का उद्घाटन करने के लिए सरस्वती के चित्र के समक्ष दीप प्रज्वलित करने के उपक्रम में भाग लिया।
कार्यक्रम का संचालक कर रहीं बहन ने उपस्थित श्रोताओं को बताया कि वे लोग परम पावन को अपने बीच पाकर कितने धन्य महसूस कर रहे हैं। मुख्य अतिथियों के औपचारिक स्वागत में सभी को पारंपरिक हिमाचली टोपी भेंट की गई। इसके साथ ही मंच पर उपस्थित अतिथियों के समूह को गेंदे की एक विशाल माला से चारो ओर से घेर दिया गया।
बीटीएसएम के राष्ट्रीय महासचिव पंकज गोयल ने सबसे पहले ‘जय भारत, जय तिब्बत’ के उद्घोष के साथ अपने संबोधन की शुरुआत की। उन्होंने मुख्य अतिथि व दर्शकों का स्वागत किया। उन्होंने उल्लेख किया कि अपने गठन के बाद से अब तक २५ वर्षों में बीटीएसएम ने पूरे भारत में अपनी शाखाएं स्थापित की हैं। उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि परम पावन का आशीर्वाद पाकर सदस्य कितने गौरवान्वित हुए हैं और वे तिब्बत के लिए अपना समर्थन बनाए रखने के लिए कितने दृढ़ प्रतिज्ञ हैं।
उन्होंने जानकारी दी कि अपनी कई गतिविधियों में बीटीएसएम लोगों को हिमालय की तीर्थयात्रा पर ले जाता है। गोयल ने घोषणा की कि तिब्बत एक दिन फिर से आजाद होगा और भारतीय और तिब्बती कैलाश शिखर पर एक साथ जश्न मनाएंगे। उन्होंने बताया कि फिलहाल संगठन का प्रमुख लक्ष्य अधिक से अधिक युवाओं को इस संगठन का सदस्य बनाना है।
इसके बाद मुख्य संरक्षक इंद्रेश कुमार ने सभा को संबोधित किया और भारत-तिब्बत के बीच ऐतिहासिक संबंधों के बारे में बताया। उन्होंने परम पावन की भूरि- भूरि प्रशंसा की। उन्होंने ध्यान दिलाया कि बुद्ध पूर्णिमा पर सभा का आयोजन कितना शुभ कार्य है और इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की कि बुद्धदेव के मंगल उपदेश आज भी हमारे साथ हैं।
अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष की पारंपरिक कहानियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि अंततः अहिंसा के माध्यम से अच्छाई की जीत होती है। उन्होंने पुष्टि की कि बीटीएसएम अपनी गतिविधियों में हमेशा अहिंसक रुख अपनाता है क्योंकि हिंसा का सहारा लेने से केवल मानवता का नुकसान ही होता है।
उन्होंने कहा कि जिस तरह से चीन ने तिब्बत और तिब्बतियों के साथ गलत व्यवहार किया है, उसके लिए चीन को आड़े हाथों लेना बहुत जरूरी है। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि बीटीएसएम उन सभी तिब्बतियों को याद करते हुए चीन को जवाबदेह ठहराएगा, जो तिब्बत पर उसके कब्जे के कारण पीड़ित हुए हैं। उन्होंने ‘ऊं मणि पदमे हुं’ मंत्र का जाप किया।
उन्होंने तिब्बत के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए बीटीएसएम की योजनाओं की ओर इशारा किया और तिब्बती मुद्दे के लिए काम करना जारी रखने का वादा किया। अपने संबोधन के अंत में उन्होंने कहा कि तिब्बत पहले एक स्वतंत्र देश था और कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा। उन्होंने ‘जय तिब्बत, जय भारत’ के नारे के साथ अपना संबोधन समाप्त किया।
इसके बाद परम पावन ने अपना संबोधन इस टिप्पणी के साथ प्रारंभ किया कि उनके निर्वासन में आने के बाद पंडित नेहरू ने उनके रहने के लिए यहां धर्मशाला में व्यवस्था की थी।
उन्होंने कहा कि भारत एक स्वतंत्र देश है, एक ऐसी जगह जहां हमें धर्म पालन करने की स्वतंत्रता मिली है। यहां विश्व के सभी धर्मों का पालन करने वालों का सम्मान किया जाता है, पर बौद्ध धर्म का तो जन्म ही इसी देश में हुआ। इसलिए कांग्यूर और तेंग्यूर संग्रहों में शामिल सभी ग्रंथों का शीर्षक ‘भारत की भाषा में’ शुरू होती हैं। भारत और तिब्बत के बीच लंबे समय से विशेष संबंध रहे हैं और इस तरह से हमारी गहन परंपराएं कायम हैं।
उन्होंने कहा कि सातवीं शताब्दी में तिब्बती राजा सोंगत्सेन गम्पो ने एक चीनी राजकुमारी से विवाह किया जो तिब्बत और चीन के बीच मजबूत ऐतिहासिक संबंधों को इंगित करता है। हालांकि, जब लिपि के तौर पर तिब्बती रूप को फिर से डिजाइन करने की बात आई तो राजा ने इसे भारतीय देवनागरी वर्णमाला के आधार पर तिब्बती स्वरों और व्यंजनों को संयोजित करना चुना।
सोंगत्सेन गम्पो के समय तिब्बत में बहुत से चीनी भिक्षु थे। लेकिन बाद के एक राजा ठिसोंग देछेन ने बौद्ध साधना के चीनी और भारतीय दृष्टिकोणों का मूल्यांकन करवाने का निश्चय किया। उन्होंने भारतीय आचार्य कमलशील और चीनी भिक्षुओं के बीच शास्त्रार्थ का आयोजन करवाया। कमलशील ने तीन सर्वोच्च शिक्षाओं आदि की गहन व्याख्या की, जबकि चीनी भिक्षुओं के पास कहने के लिए बहुत-कुछ नहीं था। राजा ने फैसला किया कि अध्ययन, चिंतन और ध्यान के महत्व पर जोर देने वाली कमलशील की पद्धति तिब्बतियों के लिए केवल चीनी ध्यान केंद्रित करने की तुलना में अधिक उपयुक्त है। इसके बाद उन्होंने चीनी भिक्षुओं को तिब्बत छोड़ने के लिए कह दिया।
कमलशील के गुरु और भारत में नालंदा विश्वविद्यालय के एक महान आचार्य शांतरक्षित को भी इससे पहले तिब्बत में आमंत्रित किया गया था। उन्होंने ही हिम भूमि में कारण और तर्क पर निर्भरता के साथ नालंदा परंपरा की स्थापना की थी। उन्होंने आगे सलाह दी कि चूंकि तिब्बतियों की अपनी लिखित भाषा है, इसलिए शास्त्रों को पढ़ने के लिए संस्कृत या चीनी पर निर्भर रहने के बजाय उन्हें उनका तिब्बती में अनुवाद करना चाहिए। इस तरह बुद्ध के प्रवचनों का अनुदित संग्रह-कांग्यूर और बाद के आचार्यों के भाष्य ग्रंथ आदि कृतियों का अनुवाद- तेंग्यूर अस्तित्व में आए। नतीजतन, तिब्बती आज भी नालंदा परंपरा के अनुसार बुद्ध के प्रवचनों की व्याख्या करते हैं।
उन्होंने बताया कि इन दिनों कई बौद्ध देशों के भक्त और छात्र इसलिए हमसे मिलने यहां आते हैं क्योंकि हमने बुद्ध की संपूर्ण शिक्षाओं को अंगीकार किया है। अधिक क्या कहना, हम साधना के साथ-साथ अध्ययन भी करते हैं। हम शांति के साथ-साथ विश्लेषणात्मक ध्यान की साधना भी करते हैं और शास्त्रों और ग्रंथों को तर्क और कारण की कसौटी पर रखकर अध्ययन करते हैं।
जब हम शास्त्रार्थ, विशेष रूप से तर्क- वितर्क के दौरान पक्ष रखते हैं, उस समय यदि चुनौती देने वाला अपने दावे को सही ठहराने के लिए धर्मग्रंथों की पंक्तियों का उद्धरण देता है, तो दूसरा पक्ष उन उद्धरणों को सही मानने पर सम्मान के तौर पर अपनी टोपी उतार देता है। लेकिन यदि वह यह समझ्ता है कि दिए गए उद्धरण सटीक साबित नहीं हो रहे हैं तो वह अपनी टोपी वापस सिर पर रख लेता है और उद्धरण की उचित व्याख्या बताता है।
परम पावन ने आगे कहा, जब मैं छोटा था, तब मैंने अपनी पढ़ाई ‘कलेक्टेड टॉपिक्स’ के साथ शुरू की थी। फिर मैं शास्त्रीय ग्रंथों को पढ़ना शुरू किया, जिनमें से कई को मैंने कंठस्थ कर लिया था। मैंने अपने शिक्षक के पास बैठकर उन ग्रंथों का अध्ययन किया और वाद-विवाद सहायकों की एक टीम के साथ मैंने जो समझा, उस पर वाद-विवाद किया। आज पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि हमारे बौद्ध शिक्षण केंद्रों के ऐसे विद्वानों के साथ बैठना और उनसे शिक्षा ग्रहण करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।
आजकल मैं विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन करने का इतना आदी हो गया हूँ कि अन्य धार्मिक विद्वानों या यहां तक कि आधुनिक वैज्ञानिकों से भी मिलने के दौरान मुझे लगता है कि मैं आत्मविश्वास से अपना दृष्टिकोण रख सकता हूं।
एक खोजी विश्लेषण करने में सक्षम होना बहुत मूल्यवान है। हमें जो कुछ कहा जाता है हम उसे आँख बंद करके स्वीकार नहीं करते हैं, हम तर्क की कसौटी पर चीजों के कारण की जांच- परख करते हैं।
जब मैं ल्हासा में गेशे (स्नातक) परीक्षा में बैठा तो तीन महान विहारों- गदेन, सेरा और डेपुंग में शास्त्रार्थ के द्वारा मेरी परीक्षा पहले ही हो चुकी थी। मैंने अपने सबसे अच्छे कपड़े पहने हुए थे। लेकिन उनके आवरण में मेरा दिल घबरा रहा था। परीक्षा के बाद मैं आराम और विश्लेषणात्मक ध्यान के संयोजन में संलग्न होने में सक्षम हो गया था। इससे मुझे अपना दिमाग बदलने में मदद मिली है।
परम पावन ने समझाया कि कैसे प्रतिदिन जागते ही वे बुद्ध की बोधिचित्त और शून्यता के दृष्टिकोण को लेकर शिक्षाओं के सार का ध्यान करते हैं। उन्होंने घोषणा की कि भारत में पुनः स्थापित शिक्षा के मठीय केंद्रों में कई हजार भिक्षु और भिक्षुणियां अध्ययन, साधना और ध्यान में लगे हुए हैं। उन्होंने उन भिक्षु और भिक्षुणियां द्वारा किए जा रहे अध्ययन साधना और ध्यान के लिए उनकी भूरि- भूरि प्रशंसा व्यक्त की, क्योंकि उनकी इन साधनाओं से ही बौद्ध शिक्षण संरक्षित है। इसके लिए अध्ययन और साधना के संयोजन की आवश्यकता है। उन्होंने इसे जारी रखने का आग्रह किया।
उन्होंने टिप्पणी की कि वह भिक्षुणियों को अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करने और उन्हें गेशेमा (महिला स्नातक) बनाने का श्रेय लेने का दावा कर सकते हैं क्योंकि इसे एक नवाचार के तौर पर उन्होंने शुरू किया है। तिब्बती स्कूलों में भी उन्होंने धर्म के अलावा अलग से दर्शन पर ध्यान केंद्रित करने की वकालत की है। जहां कभी धार्मिक गुरु हुआ करते थे वहां अब दर्शनशास्त्र के शिक्षक पढ़ा रहे हैं।
उन्होंने कहा, यहां निर्वासन में हम केवल अपने लाभ के लिए काम नहीं कर रहे हैं। कांग्यूर और तेंग्यूर को संरक्षित करके और उनमें निहित ग्रंथों का अध्ययन करके हमने वास्तविकता के विचारों और चित्त के विज्ञान को बरकरार रखा है। यह विशुद्ध रूप से धर्मनिरपेक्ष संदर्भ में दूसरों के लिए व्यापक लाभ का हो सकता है। हम केंद्रीय और स्थानीय दोनों स्तरों पर भारत सरकार के उदार समर्थन और प्रोत्साहन के कारण ऐसा करने में सक्षम हुए हैं। हमारे स्कूलों में बच्चों को आधुनिक शिक्षा मिलती है लेकिन वे हमारे मूल्यों और परंपराओं को जीवित रखने में भी सक्षम हैं।
उन्होंने कहा, ‘मैं इस अवसर पर भारत सरकार के साथ ही स्थानीय अधिकारियों को उनकी महान कृपा के लिए धन्यवाद देना चाहता हूं।‘
उनकी इस बात पर सभागार दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
उन्होंने कहा, ‘यह भारत-तिब्बत सहयोग मंच अपनी २५वीं वर्षगांठ मना रहा है। इसके तत्वावधान में पूरे भारत के लोगों ने तिब्बत को अपना समर्थन दिया है। हमें अपनी संस्कृति को बनाए रखने के लिए कई हलकों से समर्थन मिला है और मैं उन सभी को धन्यवाद देना चाहता हूं जिन्होंने हमारी मदद की है।‘
अपने निवास पर लौटने से पहले परम पावन ने टीपा के कलाकारों को गाते और नृत्य करते हुए देखा जिसका उद्भव तिब्बत के कोंगपो क्षेत्र में हुआ था। इस नृत्य में पुरुष नर्तक धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाए चल रहे थे, जबकि स्त्रियाँ बाणों की तरकश लिए चल रही थीं। परम पावन ने तरकश में से एक तीर लिया और शुभता के चिह्न के रूप में उसे अपने सामने हवा में उछाल दिया।