भारत चीन जल विवाद : ब्रह्म चेलानी
जब से भारत और चीन आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं, उसी समय से उन पर दुनिया भर की निगाहें लगी हैं। ये दो जहसांख्यिकीय दिग्गज आर्थीक विकास के आकाश में एक साथ छलांग रहे हैं। दोनों देश वैशिवक सत्ता परिवर्तन को रेखांकित करने में मददगार बन रहें हैं, लेकिन इन दोनों देशों में सामरिक विक्षोभ और शत्रुता की ओर अधिक ध्यान नहीं जाता। बहुत तेजी से शाक्तिशाली होता जा रहा चीन एशिया में प्रतिस्पर्धा से ऊपर उठने के लिए संकल्पबद्ध नजर आता है।
भारत के प्रति उसका रूख कड़ा होता जा रहा है। इनमें हिमालयी क्षेत्र में चीनी सेना पी-पुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा नियमित रूप से आक्रामक गशत लगाना, दोनों विशाल देशों को अलग करने वाली नियंत्रण रेखा का उल्लघंन करने की बढ़ती घटनाएं, भारत के पूर्वेत्तर राज्य अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा जताना और सरकारी नियंत्रण वाले चीनी मीडिया में भारत के खिलाफ हमलावर रूख अपनाना शामिल है।
हालांकि जो मुद्दा भारत और चीन को बांटता है, वह सीमा विवाद से आगे का है। चीन-भारत संबंधों में पानी मुख्य सुरक्षा मुद्दे के रूप में उभर रहा हैं। यह दोनों देशों के बीच आपसी विवाद का बड़ा कारण बना हुआ हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि गंगा को छोड़कर एशिया की तमाम बड़ी नदियों का उदगम चीनी नियंत्रण वाला तिब्बत क्षेत्र हैं। यहां तक कि गंगा की दो प्रमुख सहायक नदिया भी यहीं से होकर आती हैं। देखा जाए तो चीन और भारत दोनों ही जल संकट से त्रस्त हैं। खेती और बड़े उद्योगों को ध्यान में रखते हुए इन दोनों देशों में पानी की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। साथ ही बढ़ते मध्यम वर्ग को पानी की अधिक आवशयकता पड़ रही है। दोनों देश पूरे साल पानी की तंगी झेल रहे हैं। प्रति व्यक्ति आय की तरह मध्यपूर्व क्षेत्र प्रति व्यक्ति पानी की आपूर्ति में भी पिछड़ा हुआ है।
अगर पानी की मांग वर्तमान दर से बढ़ती रही है तो इसकी कमी के कारण उद्योग और कृषि की विकास दर में कमी आ जाएगी। पानी की कमी से खाद्य पदार्थी का निर्यात करने वाले भारत और चीन प्रमुख निर्यातकों में शामिल नहीं हो पाएंगी, जिसके कारण वैशिवक खाद्य संकट गंभीर हो सकता है।
भारत की कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रपल चीन से ज्यादा है। भारत में कृषि योग्य भूमि 16.05 करोड़ हेक्टेयर हैं जबकि चीन में मात्र 13.61 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि है, लेकिन प्रमुख भारतीय नदियों का उद्रम तिब्बत है। तिब्बत के विशाल ग्लेशियर, भूमिगत जल के विपुल स्त्रोत और समुद्र तल से काफी अधिक ऊचाई के कारण पोलर ध्रुवों के बाद तिब्बत ताजा पेयजल का विशव का सबसे बड़ा स्त्रोत है। हालांकि खतरनाक बात यह है कि आज चीन तिब्बत क्षेत्र से अन्य नदियों को जोड़ने की बड़ी परियोजनाओं पर काम कर रहा है।
इससे इस क्षेत्र से निकलने वाली नदियों का पानी भारत नहीं पहुंच पाएगा। और भारत व अन्य संबद्ध देशों की अनेक नदियों सुख जाएंगी, किंतु इससे पहले कि पानी स्थानांतरित करने की ये परियोजनाएं चालु हों, चीन को एक व्यवस्थागत नीति तैयार कर लेनी चाहिए और जिन देशों में चीन का उद्रम वाली नदियां बहती हैं उनसे परस्पर, सहयोग पर आधारित समझौता कर लेना चाहिए।
बड़े बांध, बैराज, नहरें और सिंचाई तंत्र पानी को एक राजनीतिक हथियार में बदल सकते हैं। एक ऐसा हथियार जो युद्ध के दौरान विध्वंस मचा सकता हैं और शांति काल में संबद्घ देशों का असंतोष दूर कर सकता है। यहा तक कि नाजुक समय में पानी के संबंध में उपयुक्त आंकड़े जारी न करके इसे एक राजनीतिक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। लाभ की स्थिति में रहने वाले देश के खिलाफ प्रभावति देशों को अपनी सैन्य क्षमता इतनी बढ़ा लेनी चाहिए कि पानी पर नियंत्रण के मामले में नुकसान की स्थिति के बीच संतुलन बिठाया जा सके। हिमाचल प्रदेश और अरूणाचल प्रदेश में पिछले वर्षों के दौरान आई बाढ़ का कारण यही है कि चीन ने अपनी परियोजनाओं से पानी छोड़ने के संबंध में भारत को पूर्व सूचना जारी नहीं की थी। असलियत यह है कि तिब्बत से निकलने वाली अधिकांश अंतरराष्ट्रीय नदियों पर चीन बांध बनाने में जुटा है। जिन नदियों पर अब तक कोई परियोजना शुरू नहीं की गई है वे सिंधु और सलवीन हैं। सिंधु पाकिस्तान से होती हुई भारत पहुंचती है जबकि सलवीन बर्मा और थाईलैंड से गुजरती है। हालांकि येनान प्रांत में स्थानीय निकाय भूकंप संभावित क्षेत्र में सलवीन नदी पर बांध बनाने की योजना बना रहा है। भारत चीन पर बराबर दबाव बना रहा है कि वह पारदर्शिता अपनाए, पानी से संबंधित आंकड़ों का आदान-प्रदान करे, किसी भी नदी के प्राकृतिक प्रवाह को न मोड़े और सीमा पार से भारत में आने वाली नदियों का जल कम न करे।
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