अमृतसर। दुनिया भर में प्रतिष्ठा प्राप्त और नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित परमपावन दलाई लामा ने 9 नवंबर को अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में ‘इक-नूर अंतर धार्मिक कॉन्क्लेव’ में अंतर धार्मिक सम्मेलन की अध्यक्षता की। ‘इक नूर अंतर धार्मिक कॉन्क्लेव’ पंजाब सरकार द्वारा प्रथम सिख गुरु गुरु नानक देव के 550वें प्रकाश पर्व के अवसर पर आयोजित एक सप्ताह तक चलनेवाले समारोह का हिस्सा था।
इससे पहले 9 नवंबर की सुबह परमपावन दलाई लामा ने सिखों के सबसे पवित्र धर्मस्थल स्वर्ण मंदिर में मत्था टेका। स्वर्ण मंदिर में परमपावन दलाई लामा ने उस जगह पर जाकर श्रद्धांजलि अर्पित की, जहां गुरुग्रंथ साहिब जी का पाठ हो रहा था और वहां एक पारंपरिक तिब्बती खतक अर्पित किया। परमपावन दलाई लामा ने स्वर्ण मंदिर के सदस्यों और प्रतिनिधियों से मुलाकात की, जिन्होंने परम पावन को शॉल और स्वर्ण मंदिर का स्मृति चिह्न भेंट किया।
इस सम्मेलन में पंजाब के वित्तमंत्री माननीय मनप्रीत सिंह बादल उपस्थित रहे और उन्होंने पंजाब सरकार की ओर से सम्मेलन को संबोधित किया।
सम्मेलन की अध्यक्षता विभिन्न धर्मों के आचार्यों ने किया। इनमें रामकृष्ण मिशन के स्वामी शुद्धिदानंद, अंजुमन मिनहाज-ए-रसूल के संस्थापक मौलाना सैयद अतहर हुसैन देहलवी, श्री अकाल तख्त साहिब के पूर्व जत्थेदार ज्ञानी जोगिंदर सिंह वेदांती, चर्च ऑफ नार्थ इंडिया के बिशप सामंत राय, ब्रह्म कुमारी संस्था की बी के उषा, तिवारी सहित विभिन्न धर्मों के नेताओं द्वारा अंतर-धार्मिक संवाद की अध्यक्षता की गई। उषा, अहमदिया मिशन के सैयद और श्री अरबिंदो मिशन की डॉ मोनिका गुप्ता और इस विश्वविद्यालय के कुलपति ने भी अपनी गरिमामयी उपस्थिति से समारोह को सुशोभित किया। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के शिक्षकों, कर्मचारियों, छात्रों और कर्मचारी भी सम्मेलन में दर्शक के तौर पर उपस्थित रहे।
परमपावन दलाई लामा ने सम्मेलन में अपनी चार प्रमुख प्रतिबद्धताओं के साथ ही ’मानवता की एकता’ और ‘धार्मिक सद्भाव’ के बारे में प्रवचन दिया।
परम पावन ने कहा, ‘मैं वास्तव में पूरे सात अरब मनुष्यों की एकता में विश्वास करता हूं और इसकी साधना भी करता हूं। एक बौद्ध भिक्षु और साधक के तौर पर दुनिया के सभी सात अरब मानव जाति हमारी माता हैं और इसलिए हम कहते हैं कि मां संवेदनशील होती हैं। इसलिए हम सही मायने में सात अरब इंसान भाई-बहन हैं।‘
परम पावन ने कहा कि सभी मनुष्य मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से समान हैं। और इस प्रकार उन्होंने एकता की भावना को विकसित करने के महत्व पर प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा, ‘हम सब एक समान ही पैदा हुए हैं, लेकिन धीरे-धीरे हम अपने विश्वासों के के कारण आपस में बहुत अंतर करने लगते हैं। यह धार्मिक विश्वास हमें ‘हम’ और ‘वे’ के बीच मजबूत अंतर को महसूस कराता है। पहले दर्जे में मूल रूप से हम सब समान हैं। लेकिन धार्मिक विश्वास जैसे दूसरे दर्जे पर हुए अंतर के आधार पर मतभेदों पर बहुत अधिक जोर देते हैं और ‘हम’ और ‘वे’ की सोच के आधार पर हत्याएं और युद्ध तक होते हैं। धार्मिक विश्वास भी संकटों और हत्या का कारण बन रहा है। इस समय जब हम यहां शांति और स्वास्थ्य होकर जीवन का आनंद ले रहे हैं, इसी समय, इसी धरती के कई हिस्सों में, विशेष रूप से माध्य एशिया के कुछ देशों में हत्या और युद्ध का तांडव चल रहा है। ये सभी समस्याएं हमारी अपनी ही रचना हैं।‘
अपनी पहली प्रतिबद्धता पर बोलते हुए परम पावन ने कहा कि ‘कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, बुनियादी मानव स्वभाव दयालु है क्योंकि हम सामाजिक प्राणी हैं। व्यक्ति का अस्तित्व समुदाय पर निर्भर है, जिसके बिना किसी का अस्तित्व नहीं रह सकता है। इस तरह हमारा अस्तित्व और जिंदा रहने का आधार समुदाय पर निर्भर करता है। आज पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण, तक संपूर्ण विश्व एक मानव समुदाय है। इसलिए अब हमें सात अरब मनुष्यों की एकता की भावना की आवश्यकता है। इसलिए मैं सात अरब मनुष्यों की एकता की भावना को बढ़ावा देने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हूं।‘
परम पावन ने कहा कि कि हम सभी सामाजिक प्राणी हैं और हमारे अंदर करुणा का बीज है। उन्होंने कहा कि जो गलतियां हैं वह मौजूदा आधुनिक शिक्षा प्रणाली में निहित है, जिसे ब्रिटिश सत्ता ने प्रचलित किया है। पश्चिम में मुख्य रूप से आस्तिक धर्म का पालन किया जाता है। वे भगवान में विश्वास करते हैं जहां मन के प्रशिक्षण की कोई परंपरा नहीं है।
भारत की अहिंसा और करुणा की अवधारणा पर बल देते हुए परमपावन दलाई लामा ने मन के प्रशिक्षण की प्राचीन भारतीय परंपरा-‘समता’ और आंतरिक शांति व शक्ति को विकसित करने के लिए मानव बुद्धिमत्ता के साथ सहानुभूति की प्राचीन भारतीय परंपरा-‘करुणा’ का आधुनिक शिक्षा पद्धति में संयोजन की आवश्यकता बताई।
परम पावन ने कहा कि शांति की भावना को व्यक्तिगत स्तर पर विकसित किया जाना चाहिए जिसे दूसरों के साथ साझा करने में सक्षम हो सके। हम न केवल पैसे के बारे में सोचें, क्योंकि ऐसे में तो आप अन्य लोगों के साथ केवल पैसा की बांट पाएंगे।
“अहिंसा और करुणा की भारत की परंपरा बहुत प्रासंगिक है जो सहानुभूति की भावना के लिए बुनियादी मानवीय मूल्यों को धर्मनिरपेक्ष तरीके से बढ़ावा देने का साधन है। परम पावन ने स्कूलों में प्रदान की जाने वाली भौतिक शिक्षा में स्वच्छता लाने के साथ भावनाओं को स्वच्छ करने की आवश्यकता की जरूरत बताई।
परम पावन ने किंडरगार्डन से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक अकादमिक विषय के रूप में अहिंसा और करुणा की अवधारणा को शामिल करने की आवश्यकता पर बल दिया, जिससे एक खुशहाल व्यक्ति, खुशहाल परिवार, खुशहाल समुदाय और अंततः एक खुशहाल मानवता का निर्माण हो सकेगा।
परम पावन ने कहा कि ‘मैं 84 साल का हो गया हूँ। मेरा जीवन बहुत कठिन रहा है जिसमें बहुत सारी बाधाएं रही हैं, लेकिन हजार साल पुरानी भारतीय परंपरा के कारण मैं अपने भीतर शांति बनाए रख सका। करुणा और अहिंसा की साधना बहुत उपयोगी है। भारत की यह हजारों साल पुरानी परंपरा दिन-प्रतिदिन के जीवन में शांति के लिए बहुत सहायक है।‘
परम पावन ने कहा, ‘आधुनिक भारत के लोग इन बातों की उपेक्षा करते हैं इसलिए मैं ध्यान देने का आग्रह करना चाहता हूं। आधुनिक भारत में बहुत अधिक भौतिकवादी शिक्षा और भौतिकवादी सोच आ गई है। यह एक स्तर तक आवश्यक है। लेकिन इससे भौतिकवादी शिक्षा और सोच से जीवन में आंतरिक शांति नहीं आएगी। भारत के पास दुनिया को देने के लिए करुणा पर आधारित शांति, क्षमा और सहिष्णुता की विशाल क्षमता हैं। भारत एकमात्र ऐसा देश है जो आंतरिक शांति की प्राचीन भारतीय ज्ञान की परंपरा को भौतिकवादी विकास लानेवाली आधुनिक शिक्षा के साथ समायोजित कर सकताहै। इसलिए भारतीय भाइयों और बहनों को प्राचीन भारतीय ज्ञान पर ध्यान देना चाहिए।‘
दूसरी प्रतिबद्धता पर बोलते हुए परमपावन दलाई लामा ने भारत के धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा की और इस विशेष अवसर पर धार्मिक सहिष्णुता के लिए अपना जीवन समर्पित करनेवाले गुरु नानकदेव के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।
परम पावन ने अपनी इस यात्रा को विशेष रूप से सराहनीय बताया कि गुरु नानक ने दूसरी धार्मिक परंपरा से संबंधित होने के बावजूद मक्का की यात्राक् की थी, जो उनके धार्मिक सद्भाव को उजागर करता है। परम पावन ने जाति व्यवस्था से मुक्त रहने के लिए सिख धर्म की भी सराहना की।
परम पावन ने धर्म के दृष्टिकोण से बोलते हुए कहा कि धार्मिक दर्शन में विभिन्न मतभेदों के अनुसार अंतर हैं लेकिन सभी प्रमुख धार्मिक परंपरा प्रेम और करुणा का ही संदेश देती हैं।
इसलिए उन्होंने प्रमुख धर्मों के भीतर वास्तविक पारस्परिक सम्मान का आदान-प्रदान सीखने की सलाह दी। क्योंकि परम पावन इसे आज की दुनिया में आवश्यक और प्रासंगिक मानते हैं।
परमपावन दलाई लामा ने पर्यावरण पर भी ध्यान देने की आवश्यकता पर बल दिया, क्योंकि आज ग्लोबल वार्मिंग एक गंभीर मुद्दा बन गया है। इसलिए परम पावन ने अहिंसा की अवधारणा के तहत पर्यावरण में सुधार के लिए वनों की कटाई रोकने और अन्य कदमों को शामिल करने की आवश्यकता व्यक्त की। परम पावन ने पर्यावरण के शोषण को कम करने और इसकी देखभाल करने की सलाह दी। परम पावन ने आगे कहा कि एक दिवंगत मित्र ने वन पर ध्यान देने के लिए उनसे अनुरोध किया था, इसलिए वह उस जिम्मेदारी को पूरा कर रहे हैं।
तीसरी प्रतिबद्धता के बारे में बात करते हुए परम पावन दलाई लामा ने उल्लेख किया कि चूंकि तिब्बतियों का उन पर भरोसा है, इसलिए 2001 में जबसे वह राजनीतिक जिम्मेदारी से सेवानिवृत्त हुए हैं, लेकिन उनकी नैतिक जिम्मेदारी बनी हुई है। परम पावन ने कहा कि उनकी मुख्य जिम्मेदारी तिब्बत की पारिस्थितिकी को बचाना है जिसका कि बहुत शोषण हो चुका है। परम पावन ने तिब्बती संस्कृति और ज्ञान को संरक्षित करने के लिए अपनी जिम्मेदारी का भी उल्लेख किया जो मूल रूप से आठवीं शताब्दी में भारत से आया था। परम पावन ने सभा को बताया कि किया कि बौद्ध परंपरा किस तरह भारत से, विशेष रूप से नालंदा परंपरा से तिब्बत में आई और साथ ही उन्होंने नालंदा परंपरा को सार रूप में बताया।
परम पावन ने कहा कि ‘एक हजार वर्ष से भी अधिक समय से हमने यह ज्ञान को बचाए रखा है। हमारी परंपरा मानवता के लिए बहुत उपयोगी है, इसलिए मैं वास्तव में प्राचीन तिब्बती ज्ञान को बचाने की कोशिश करता हूं, जो मूल रूप से नालंदा परंपरा से आया है।‘
आधुनिक भारत में प्राचीन भारतीय ज्ञान के पुनरुद्धार की अपनी अंतिम प्रतिबद्धता की चर्चा शुरू करते हुए परम पावन ने दोहराया कि आधुनिक भारत में शिक्षा अधिक भौतिकवादी हो गई है जो महत्वपूर्ण है लेकिन पर्याप्त नहीं है।
परम पावन ने जोर देकर कहा कि नालंदा परंपरा का अभ्यास शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मन की शांति और स्वच्छता को बनाए रखने में भी सहायक है।
अंत में परमपावन दलाई लामा ने गुरु नानक साहिब के 550वें प्रकाश पर्व पर इस समारोह को आयोजित करने के लिए आयोजकों को धन्यवाद दिया। इसके साथ ही परम पावन ने प्राचीन भारतीय ज्ञान के संरक्षण के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने का वादा किया।
अन्य सभी धर्म के गुरुओं ने भी शांति, धार्मिक सद्भाव, प्रेम और एकता का संदेश दिया।