पंकज मिश्र
8 दिसम्बर 2011 (गार्डियन डाट सीओ डाट यूके)
साल 2008 में कीर्ति सिथत तिब्बती मठ चीन विरोधी प्रदर्शनों का केंद्र बना जिसमें दर्जनों लोगों की जानें चली गर्इं और बहुत से तिब्बतियों को जेलों में ठूंस दिया गया। इस साल मार्च में उक्त विरोध प्रदर्शनों की तीसरी वर्षगांठ पर मठ के एक युवा तिब्बती ने अपने शरीर को केरोसीन से भिगो लिया और आग लगा ली। इसके बाद से करीब एक दर्जन तिब्बती महिला-पुरुष खुद को आग लगा चुके हैं। आत्मदाह तिब्बती भिक्षुओं के विरोध प्रदर्शन का एक चरम तरीका है, यह सभी प्राणियों के जीवन का सम्मान करने के बौद्ध धर्म के बुनियादी उसूलों के खिलाफ है। जब मैंने पिछले महीने कीर्ति मठ के निर्वासित 70 वर्षीय प्रमुख क्याबजे कीर्ति रिनपोछे से इस आत्मदाह के सिलसिले की वजह जानना चाहा तो उनका जवाब था-‘हताशा’।
उन्होंने बताया कि किस तरह से स्थानीय चीनी प्रशासन दमनकारी उपायों का सहारा ले रहा है, मनमाने तौर से गिरफ्तारी, सड़कों पर जगह-जगह जांच बिंदु, मठों के भीतर पुलिस कैम्प और वैचारिक पुनर्शिक्षा अभियान जिसके तहत कीर्ति मठ के कोठरियों में कैदी जैसे रह रहे 2500 भिक्षुओं को इस तरह के वाक्य बोलने पर मजबूर किया जाता है, ‘मैं दलार्इ गुट का विरोध करता हूं,’ ‘मैं कम्युनिस्ट पार्टी से प्रेम करता हूं’।
तिब्बत पर प्रमुख चीनी टिप्पणीकार वांग लिजियांग ने इसका वर्णन किया है कि किस प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी ने तिब्बत में जरूरत से ज्यादा ब्यूरोक्रेटिक मशीनरी तैनात की है, जो किसी भी तरह के असंतोष से संवेदनाहीन तरीके से और कठोर उपायों से निपटते हैं और जिसकी वजह से केंद्रीय सरकार तिब्बत संकट के लिए एक सोचा-समझा समाधान पेश करने में विफल है। उनके अनुसार तिब्बत में पहली नजर में ऐसा लगता है जैसे लगातार एकाधिकारवादी और धर्मनिरपेक्ष शासन एक गरीब धार्मिक जनसंख्या पर चढ़कर बैठा हुआ हो। लेकिन यह भी सच है जैसा कि साल 2008 के विरोध प्रदर्शनों के बीजिंग स्थित एनजीओ गोंगमेंग ला रिसर्च सेंटर के जबर्दस्त अध्ययन में कहा गया है, (इसके तत्काल बाद इस केंद्र को चीनी प्रशासन ने बंद करा दिया), “तिब्बत में अब वास्तविकता मापने का एक नया संदर्भ ढांचा तैयार हो गया है।” रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया है कि अब बहुत समय तक “ऐसा तिब्बत नहीं बचेगा जो आत्मनिर्भर और प्राकृतिक पर्यावरण से संरक्षित हो, बलिक एक ऐसा क्षेत्र हो जाएगा जो इच्छा या अनिच्छा से समूचे चीन और दुनिया से गहरार्इ से जुड़ा होगा।”
पिछले कुछ साल से तिब्बत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती एवं वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था का हिस्सा बना हुआ है। सरकारी निवेश और सब्सिडी की मदद से तिब्बत में समूचे चीन से भी ज्यादा तेज बढ़त दर देखी जा रही है। लोगों के जीवन स्तर में सामान्य तौर पर बढ़त हुर्इ है। तिब्बती नस्ल के कम्युनिस्ट पार्टी कार्यकर्ताओं और कारोबारियों का एक नया ‘तिब्बती कुलीन वर्ग’ पैदा हुआ है। कर्इ हान चीनियों में यह जिज्ञासा उठना स्वाभाविक है कि सरकारी सहयोग की झड़ी लगी रहने के बावजूद आखिर तिब्बती इतने कृतघ्न क्यों हैं।
लेकिन जैसा कि गोंगमेंग रिपोर्ट में कहा गया है, “हान चीनियों द्वारा लार्इ गर्इ सहायता और विकास अक्सर जबरन बदलाव एवं टकराव भी लेकर आती है।” इस तरह के विकास के बहाने उदाहरण के लिए तिब्बती चरावाहों को उनकी घासभूमि से हटा दिया जाता है और हान चीनी आव्रजकों को तिब्बती शहरों में बसाया जाता है।
नौकरियों के छिनने और तिब्बती भाषा के दमन से तिब्बती जनसंख्या में अशक्त हो जाने की एक आम भावना पनप रही है। इसके अलावा शहरी-ग्रामीण असमानता काफी तेजी से बढ़ी है। निशिचत रूप से ज्यादातर चीनी जनसंख्या भी इस तरह के दीनता का सामना कर रही है जो कि कुछ धनी भाग्यशाली लोगों के मुकाबले काफी पीछे है। लेकिन जैसा कि चीन के प्रमुख आज़ाद सोच वाले चिंतक वांग हुर्इ लिखते हैं कि अल्पसंख्यक क्षेत्रों में आय एवं अवसरों में जो खार्इ पैदा हो रही है वह , “परंपराओं, रिवाज और भाषा में अंतर और नस्लीय समूहों की आर्थिक बाजार में स्थिति में अंतर से गहरार्इ से जुड़ा हुआ है।” दुनिया को देखने के नजरिए में यहां भारी अंतर दिख रहा है। गोंगमेंग के अनुसंधानकर्ताओं ने एक तिब्बती नागरिक का इंटरव्यू किया जिसने कहा, “तिब्बतियों के लिए समृद्धि का ज्यादा मतलब आज़ादी से है जैसे धार्मिक आज़ादी, लोगों का सम्मान, जीवन का सम्मान, वह सुख एवं समृद्धि जो आप दूसरे लोगों की मदद से हासिल करते हैं।” चीन की आधुनिकता शैली ने तिब्बतियों पर बाहरी मूल्य थोपे हैं जिससे उन्हें ‘विकास’ और ‘उपभोग’ को अंतिम शब्द के रूप में स्वीकार करना पड़ रहा है।
गोंगमेंग रिपार्ट के लेखक इसे इस तरह से बताते हैं, “आप जिस जमीन पर रहने के अभ्यस्त हों, जिस जमीन की संस्कृति से आपकी पहचान जुड़ी हो उस जमीन की जीवनशैली एवं धार्मिकता को अचानक ऐसे आधुनिक शहर में तब्दील कर दिया जाए जिसे आप ज्यादा समय तक पहचान ही न पाएं, आप अपनी जमीन पर काम ही न तलाश पाएं और जब आप आपको यह लगता हो कि आपके मुख्य मूल्य तंत्रों पर ही हमला हो रहा हो, तब तिब्बती जनता के दर्द और संकट की भावना को समझना कठिन नहीं है। एक तरह से तिब्बती जनता उसी तरह से वैश्वीकरण एवं आधुनिकता से घबराए एवं जड़ों से उखड़ रहे अन्य लोगों की तरह ही है जैसे कि अपनी जमीन छिनने पर परमाणु संयंत्रों का विरोध कर रहे भारतीय ग्रामीण या मध्य भारत में खनन कंपनियों एवं सरकार के बीच सांठगांठ से अपने बेदखली का विरोध कर रहे वनवासी लोग।
भारत एवं चीन के बीच एकाधिकारवादी एवं लोकतंत्र के बीच अंतर का सामान्य चर्चाओं में दिए जा रहे तर्क यहां बहुत काम नहीं आने वाला। सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं में व्याप्त इस तरह के संघर्ष एक गहरे टकराव को प्रदर्शित करते हैं: एक ताकतवर एवं आक्रामक विचारधारा जो परपंरा पर आधारित सामूहिक कल्याण एवं पर्यावरण के सम्मान पर सामाजिक एवं आर्थिक अलगाव को थोपती है।
लेकिन तिब्बत में हाल में विरोध का सिलसिला शुरू होने के लिए क्या विशेष दशाएं जिम्मेदार हैं? समाजशास्त्री बियाटि्रश हिबू ने अपनी नर्इ पुस्तक ‘द फोर्स आफ ओबिडिएंस’ (जो कि प्रत्यक्ष तौर पर टयूनिशिया के बारे में है) में इसका एक समुचित जवाब देते हैं। इस पुस्तक में कर्इ अन्य अर्द्ध वैश्वीकृत और असमान समाजों के मनोविज्ञान के बारे में भी पैनी दृष्टि डाली गर्इ है। हिबू बताते हैं कि किस प्रकार यह एक पार्टी सरकार द्वारा वैशिवक आधुनिकता में समावेश के वादे एवं चलन का बहुत ज्यादा दबाव नहीं है, बलिक जीडीपी बढ़त का दिखता फायदा, स्थानीय अभिजात वर्ग का सृजन और आसन्न ‘आर्थिक चमत्कार’ जिससे सब कुछ बदल जाएगा, आदि ने बहुसंख्यक जनता में एक तरह की ‘आज्ञाकारिता’ पैदा की है। काफी समय से विदेशी सरकारों और निवेशकों के लिए चीजें काफी ‘स्थिर’ दिख रही हैं।
टयूनिशिया ने संतोषजनक वृहद आर्थिक संतुलन हासिल किया है। यह धीरे-धीरे वैशिवक बाजार से एकीकृत हो रहा है। यह व्यापक रूप से विज्ञापित संभावना कि कोर्इ भी भारी उपभोग वाले नए मध्यम वर्ग में शामिल हो सकता है, वंचित तबके में राजनीतिक गुस्से को कम कर रहा था। लेकिन तब ही एक गरीब सब्जी विक्रेता मोहम्मद बोउजीजी ने इस क्रम को तोड़ दिया, उसने आत्मदाह कर लिया और समूचे पशिचम एशिया एवं उत्तर अफ्रीका में लघु क्रांति को हवा दे दी।
साठ के दशक में वियतनाम में दर्जनों बौद्ध भिक्षुओं के आत्मदाह कर लेने के बारे में मार्टिन लूथर किंग को पत्र लिखते हुए वियतनामी भिक्षु थिच हात हांच ने यह स्पष्ट किया था कि “उनका लक्ष्य दमनकारियों को मारना नहीं, बल्कि केवल उनकी नीतियों में बदलाव लाना है।” बोउजीजी की मौत के बाद अरब दुनिया में जिस तरह की घटनाएं हुर्इं उससे आत्मदाह के इस चरम कदम की राजनीतिक प्रभावोत्पादकता की पुष्टि हो गर्इ।
अब भी, तिब्बतियों द्वारा आत्मदाह की घटनाओं ने चीनी प्रशासन में चिंता की जगह शर्मिंदगी ज्यादा पैदा की है। चीन अब लगातार कर्इ संघर्षरत अर्थव्यवस्थाओं का मुकितदाता बनता दिख रहा है, जिससे दुनिया भविष्य में तिब्बत के बारे में उसी तरह से कम परेशान दिखार्इ देगी जैसा कि कश्मीर के बारे में है। इस हफ्ते तक तो ब्रिटिश सांसद आत्मदाह पर चर्चा करने से बचते रहे और जब एक संगठन आवाज से काफी दबाब पड़ा तब जाकर उन्होंने इस पर चर्चा की। बहुत से लोग आसान धन और उपभोग की अपनी विनाशी परिकल्पना से विचलित हैं और वे एक बड़े विपदा का सामना करेंगे जैसा कि फिलिप लार्किन अपने कविता में लिखते हैं-खरपतवार जैसे धुंघले देशों के लिए, पत्थरों में रहने वाले घुमंतुओं के लिए…जीवन धीरे-धीरे खत्म हो रहा है”।