सरोकार 26.05.2011
धर्मगुरु दलाई लामा ने तिब्बतियों के औपचारिक प्रमुख बने रहने की अपील ठुकरा दी है. उन्होंने राजनीतिक स्तर पर संन्यास ले लिया है और कहा है कि अब वह आराम करना चाहते हैं. दलाई लामा छह दशक से चीन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं.
दलाई लामा के सचिव छीमे छोइकिपा ने कहा, “उन्होंने निर्वासित तिब्बतियों की अपील को नहीं माना है और साफ कर दिया है कि वह औपचारिक प्रमुख नहीं बन सकते हैं.” दलाई लामा पिछले 50 सालों से भारत के धर्मशाला शहर में रह रहे हैं.
धर्मशाला में 20 देशों से आए 400 निर्वासित तिब्बती संवैधानिक बदलावों पर चर्चा कर रहे हैं. 14 मार्च को दलाई लामा के संन्यास के एलान के बाद एक चुना हुआ प्रशासन उनके काम को आगे बढ़ाएगा. धर्मशाला से ही तिब्बतियों की सरकार चलती है. इसे किसी देश की मान्यता नहीं प्राप्त है.
बुधवार को दलाई लामा ने जब तिब्बतियों को संबोधित किया तो उन्होंने कहा कि वह लोकतंत्र के हिमायती हैं और इसी वजह से उन्होंने राजनीतिक शक्ति चुनी हुई सरकार को दे देने का फैसला किया है.
लेकिन तिब्बतियों ने मंगलवार को सर्वसम्मति से इस बात पर फैसला किया कि वे लोग दलाई लामा से औपचारिक प्रमुख बने रहने की अपील करेंगे और उनसे कहेंगे कि 11 देशों के नुमाइंदे वे खुद तय करें. गुरुवार से रविवार तक अब संवैधानिक बदलावों पर चर्चा होगी.
दुनिया में लगभग 1,40,000 निर्वासित तिब्बती रहते हैं. इनमें करीब एक लाख भारत में हैं. 1959 में दलाई लामा ने चीन के खिलाफ नाकाम बगावत की थी, जिसके बाद उन्हें तिब्बत से भाग कर भारत में शरण लेनी पड़ी. इस वजह से भारत और चीन में जबरदस्त तकरार भी है. हालांकि भारत साफ कर चुका है कि वह दलाई लामा को अपने देश से नहीं निकालेगा पर साथ ही यह भी कह चुका है कि वे वहां से चीन विरोधी राजनीति नहीं कर सकते हैं.
दलाई लामा के संन्यास के एलान के बाद 20 मार्च को तिब्बतियों ने 43 सदस्यीय निर्वासित संसद के लिए वोटिंग किया. हावर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़े हुए लोबसांग सानगे 14 अगस्त से मौजूदा प्रधानमंत्री सामधोंग रिम्पोचे की जगह ले लेंगे.