प्रकाश कटोच
चीन ने करीब एक लाख उइगरों को पुन: शिक्षा शिविरों में रख रखा है। इन यातना फैसिलिटी के बारे में जागरूकता और चीन के मानव अंग के व्यापार जैसे भयावह कृत्यों ने तिब्बत पर दुनिया के ध्यान को कम कर दिया है, जहां 70 लाख हान चीनी 60 लाख तिब्बतियों को अल्पयसंख्यक बना चुके हैं। तिब्बती संस्कृति का गला घोंटकर उसे आधुनिक विकास के साथ जोड़ देने के प्रति पूर्ण अनभिज्ञता के साथ सामान्य भावना यह बन गई है कि तिब्बत अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है।
लेकिन तिब्बत पर नजर रखनेवालों को क्लाउडे अर्पि द्वारा लिखित जानकारीपरक पुस्तक ‘विल तिब्बत एवर फाइंड हर सोल अगेन’ जरूर पढ़ना चाहिए। उन्होंने इस पुस्तक में स्पष्ट रूप से चीन के आक्रमण, छल-प्रपंच और तिब्बत को अजगर की तरह निगल जाने का विशद वर्णन किया है, जिसमें भारत द्वारा मूर्खतापूर्ण तरीके से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को चावल की आपूर्ति करने का भी जिक्र है। यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि भारत ने संसद को सूचित किए बिना तिब्बत के ल्हासा और झिंझियांग के कासगर में अपने मिशनों को बंद कर दिया था। पुस्तक इन तथ्यों को उजागर करता है, जिसके परिणामस्वरूप चीन के राज्य हरण कार्यक्रम के समक्ष भारत की विविशता उजागर हो गई थी।
अर्पि ने आगे लिखा है कि हिमालय के आर-पार भारत-चीन व्यापार के फलने-फूलने के बावजूद चीन ने उस समय तवांग और नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) पर कभी दावा नहीं किया, जो साबित करता है कि चीन अरुणाचल प्रदेश (भारतीय क्षेत्र का 90,000 वर्ग किलोमीटर) पर जो दावा करता है, वह अतिरंजना ही है और ‘दक्षिण तिब्बत’ की अवधारणा बाद की है।
पुस्तक में 1954 तक की घटनाएं शामिल है, लेकिन अर्पि की योजना इस पुस्तक को निरंतरता में रखकर दो और खंड जोड़ने की है। इसका शीर्षक ‘विल तिब्बत फाइंड हर सोल अगेन?’ ग्यांत्से में एक भारतीय व्यापार एजेंट की एक रिपोर्ट का हिस्सा था, जिसने चीन को तिब्बत पर बहुत कम प्रतिरोध के बीच कब्जा करते देखा था।
ब्रिटेन और अमेरिका की पूर्व की कार्रवाइयों ने चीन की वर्तमान आक्रामकता में योगदान दिया है। 1947 में भारत के विभाजन के समय पूरा जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अंग हो गया, जिससे भारत की सीमा तिब्बत और अफगानिस्तान के साथ मिल गई। लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा नियंत्रित पाकिस्तानी सेना ने भारत पर आक्रमण कर दिया। ब्रिटिश वायसराय ने भारतीय प्रधानमंत्री को 1948 में भारतीय सेना को भागते पाकिस्तानी सेना को खदे़ड़ने से रोकने के लिए राजी कर लिया और उन्हें इस बात के लिए मना लिया कि वह संयुक्त राष्ट्र में इस मुद्दे को ले जाएं। अंग्रेजों का मानना था कि पाकिस्तान प्रभाव को रोकने में मदद करेगा। इससे चीन को पाकिस्तान के साथ एक सीमा मिल गई। पाकिस्तान के चीन के पाले में जाने के बाद चीन की पहुंच हिंद महासागर तक हो गई है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 25 लाख की मजबूत ब्रिटिश भारतीय सेना थी, जो ब्रिटेन के लिए लड़ रही थी। लेकिन युद्ध के बाद उनमें से बड़े हिस्से को भंग कर दिया गया। भारत इन सैनिकों को हटाने के बजाय इनका उपयोग कर तिब्बतियों को स्वतंत्र रहने में मदद कर सकता था। जब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया, तब भी अंग्रेज पर्याप्त भारतीय सैनिकों को पुनः जुटा सकते थे। इसी तरह अमेरिकियों ने चीन की आर्थिक वृद्धि में एक प्रमुख भूमिका निभाई है, जिसे वे अब वर्तमान व्यापार युद्ध के माध्यम से रोकने की कोशिश कर रहे हैं।
7वीं शताब्दी ईस्वी में तिब्बत एक साम्राज्य था, जिसकी सीमाएं उज्बेकिस्तान से लेकर मध्य चीन तक, झिंझियांग से आधे रास्ते तक पहुंचता था जो चीन के मुख्य हिस्से से बड़ा क्षेत्र था। 763 में तिब्बती सेना ने चीनी राजधानी चांग-ए (आज का जियान) पर कब्जा कर लिया और बहुत बाद में चीन पर शासन करने वाले मंगोलों ने तिब्बत पर भी कब्जा कर लिया।
माओ त्से तुंग ने मुख्य भूमि चीन को समृदि्ध प्रदान करने के लिए तिब्बत, झिंझियांग और इनर मंगोलिया को हड़प लिया। माओ ने तिब्बत को चीन की हथेली और लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और नेफा को इसकी पांच उंगलियां कहा। भारत तिब्बत के सामरिक महत्व को अपने और चीन के बीच एक बफर स्टेट के रूप में पहचानने में विफल रहा। भारत के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल की चीनी हड़प नीति और साम्राज्यवादी नीति की चेतावनी को भी नजरअंदाज कर दिया गया था।
चीन ने तिब्बत की संस्कृति को तबाह कर दिया है, जबकि इससे बेहतर किया जा सकता था। लेकिन चीन दलाई लामा के आशावाद और लोकतंत्र में विश्वास को लेकर चिंतित है कि इस प्रभाव से चीन में भी कानूनी सुधार की शुरुआत और आंतरिक सेंसरशिप की समाप्ति के साथ राजनीतिक सुधार धीरे-धीरे हो जाएंगे।
2011 में वाशिंगटन की यात्रा के दौरान दलाई लामा ने कहा, ‘वे (चीनी) हमेशा कहते हैं, हमारा इरादा विस्तार करने का है। मैं अपने चीनी दोस्तों से कहता हूं, अगर सब कुछ पारदर्शी हो और नीति खुली हो तो ऐसा बोलने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। और अगर सब कुछ एक गुप्त रहस्य है तो आप 1,000 बार ऐसे इरादों से इनकार करते रहें, फिर भी कोई भी आप पर विश्वास नहीं करेगा। अब यह खुली दुनिया की जिम्मेदारी है कि वह चीन को विश्व लोकतंत्र की मुख्यधारा में शामिल कराए।’
चीन का कहना है कि उसे विदेश में तिब्बती आध्यात्मिक नेताओं की आलोचना के बावजूद दलाई लामा के उत्तराधिकारी का फैसला करने का अधिकार है, लेकिन चीन के उत्तराधिकारी चुनने का मतलब उसके द्वारा पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करना है।
चीन ने निर्वासित तिब्बती सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त पंचेन लामा गेदुन चोकेई न्यिमा का अपहरण कर रखा है और चोएक्यी ग्यालपो को 11वें पंचेन लामा के रूप में स्थापित कर रखा है, जिसे चीन से बाहर मान्यता नहीं मिली। पंचेन लामा को नियुक्त करना उस प्रक्रिया का हिस्सा है जिसके द्वारा प्रत्येक नए दलाई लामा को चुना जाता है। चीन को डर है कि मौजूदा दलाई लामा किसी दिन अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर सकते हैं, जिसका मुकाबला करना मुश्किल होगा।
चीन की सबसे बड़ी चिंता आंतरिक अस्थिरता है, इस हद तक कि इसने समूहों द्वारा प्रचलित सरल साधना पद्धति वाले- फालुन गोंग आंदोलन पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसकी बाहरी सामर्थ्य और अजेय ताकत के बावजूद वहां आंतरिक असंतोष पैदा हो रहा है और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी असुरक्षित महसूस कर रही है।
नेपाली राजनीति पर प्रभाव जमा लेने के बाद चीन ने वास्तव में नेपाल में रह रहे तिब्बतियों के जीवन को नरक बना दिया। नेपाल ने तो कई तिब्बतियों चीन को सौंप दिया। चीन का भारत के साथ आंतरिक सुरक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर करने के पीछे एक स्पष्ट उद्देश्य भारत में तिब्बतियों पर खुफिया जानकारी हासिल करना और उनसे सरकार को दूर करने का काम करना है।
विल तिब्बंत एवर फाइंड हर सोल अगेन? शीर्षक पुस्तक क्लाउडे अर्पि की पुस्तक है। यह सोचना भोलापन होगा कि चीन ‘तिब्बत की आत्मा’ के बारे में चिंतित नहीं है, यह चीन के नास्तिक शासन के लिए एक अभिशाप है, क्योंकि आत्मा कभी मरती नहीं है। इसके अलावा, इतिहास खुद एक महान न्यायविद है। इसमें कितना दशक या कितनी सदियां लग जाएं, यह कोई मुद्दा नहीं है।