लगता है चीन को लेकर भारत सरकार बहुत कुछ छिपा रही हैं। उत्तरी सीमान्तर चीनी सेना की घुसपैठ निरन्तर हो रही है। इसका रहस्वोदघाटन कभी भारत-तिब्बत सुरक्षा बल के लोग करते हैं, कभी अरूणाचल प्रदेशके सांसद और कभी-कभार सेनाके लोग भी कर देते हैं परन्तु भारत सरकार सख्तीसे इस घुसपैठका खण्डन करती हैं। कभी-कभी घुसपैठ इतनी स्पष्ट और प्रत्यक्ष होती है कि भारत सरकार के लिए खण्डन करना भी मुशिकल हो जाता है। तब सरकार के पास दूसरा पक्का बहाना है कि भारत और तिब्बत को लेकर जो मैकमोहन रेखा कागज पर खींची हुई है, वह नीचे धरती पर दिखाई नहीं देती, इसलिए अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि कहां से भारत शुरू होता है और कहां तिब्बत खत्म होता है सीमा की अस अस्पष्टता के कारण कभी कभार चीनी सेना इधर आ भी जाती है लेकिन उस को घुसपैठ नहीं माना जाना चाहिए। वैसे भी भारत सरकार का यह तर्क बहुत पुराना है। पण्डित नेहरू के वक्त में भी चीन सरकार लद्दाख में सड़क बनाती रही। भारत सरकार को इसका पता था लेकिन वह उसे छिपाती रही और अन्त में जब चीन ने खुद ही धोषणा कर दी कि उसने लद्दाख में सड़क बना ली है तो भारत सरकार के पास दिखावे के लिए भी कोई बहाना नहीं बचा था। अलबत्ता चीनने इतना जरूर किया कि उसने सड़क निर्माण पूरा हो जाने की विझप्ति जारी करते समय यह भी कह दिया कि यह इलाका चीन का ही है। इसी प्रकार चीनी सेना अब जब भारतीय इलाके में घुसपैठ कर रही है तो वह उसे चीनी क्षेत्र ही बता रही है और भारत सरकार भी शायद उसी पुरानी बहानेसे अपना बचाव कर रही है।
देश भर में चीन के इन प्रयासों का जनस्तर पर विरोध होता रहता है । वास्तव में चीन की यह घुसपैठ तिब्बत की गुलामी से जुड़ी हुई है। तिब्बत यदि चीन के कब्जे में न आता तो जाहिर है, भारत की सीमा पर चीनी सेना के आने का प्रश्र ही नही पैदा होता था, इसलिए भारतीय सीमा में चीनी घुसपैठ को रोकने का एक और कारगर तरीका तिब्बत की आजदी का है। यदि तिब्बत आजाद हो जाये तो स्वाभाविक है कि भारत की सीमाओं से चीनी सेना पीछे हट जायगी और फिर घुसपैठ का प्रश्र भी समाप्त हो जायगा। परन्तु दुर्भाग्य से भारत सरकार डरती है। लेकिन पिछले दिनों 10 दिसम्बर को दिल्ली में संसद भवन के सामने जन्तर-मन्तर पर तिब्बत की स्वतन्त्रता को लेकर जो जनसैलाब उमड़ा वह दृशय आश्र्चर्यचकित कर देने वाला था। 10 दिसम्बर का दिन वैसे भी संयुक्त राष्ट्र संघ दुनिया भर में मानवाधिकार दिवस के तौरपर मनाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्र्व भर में हो रहे मानवाधिकारों के हनन की कितनी चिन्ता है, इसका अन्दजा इसीसे लगाया जा सकता है कि यह संघटन अमेरिका के साये में ही काम करता है और अमेरिका का मानवाधिकारों से उसी प्रकार की रिशता है, जिस प्रकार का रिशता किसी नागा व्यक्ति का कुत्ते से होता है। लेकिन 10 दिसम्बर को दलाई लामा को शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिला था, इसलिए इस दिन की महत्ता तिब्बतियों और भारतियों दोनों के लिए ही बढ़ जाती है।
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि इस बार 10 दिसम्बर दिल्ली में संसद भवन के सामने तिब्बत की स्वतन्त्रता को लेकर पहली बार प्रदर्शन हो रहा था। तिब्बत के लोग प्राय हर साल ऐसा प्रदर्शन करते ही हैं लेकिन इस बार के प्रदर्शन की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि यह प्रदर्शन तिब्बती नहीं कर रहे थे बल्कि भारतीय कर रहे थे। तिब्बत के लोगों की संख्या उसमें आटे में नमक के बराबर ही थी। जब भारत सरकार एक बार पुन: हिन्दी चीनी भाई-भाईके रास्ते पर अग्रसर हो रही है तब दिल्ली में अलग-अलग स्थानों से तीन चार हजार भारतीयों का बिना किसी आह्वान के तिब्बत के समर्थन में और चीनी की साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ स्वत:प्रेरणासे उमड़ पड़ना ऐतिहासिक घटना ही कही जायगी। तिब्बत की आजादी के साथ कैलास मानसरोवर की मुक्ति का प्रशन जुड़ जाने के कारण तिब्बत समस्या में एक प्रकार से भावनात्मक स्तर पर भारतीय सरकारों में वृद्धि हुई है। यह आयोजन वैसे तो भारत-तिब्बत सहयोग मंच ने किया था, जो पिछले कुछ सालों से तिब्बत के प्रश्र को लेकर जनजागरण अभियान चला रहा हैं, लेकिन इस प्रदर्शन में शामिल होने के लिए जिस प्रकार मुसलमान, दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्र्वविद्यालय के छात्र और नवबौद्ध शामिल हुए, उस से स्पष्ट पता चल रहा था कि भारत सरकार की चीन नीति का विरोध कहीं बहुत गहरे में भारतीय मानस में हो रहा है। जनभावना का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदर्शन की खबर सुनकर विख्यात पत्रकार कुलदीप नैय्यर समर्थन देने के लिए स्वर्य़ ही इस में पहुंचे। इसी प्रकार पूर्व उपराष्ट्रपति स्वर्गीत कृण्णाकान्त की धर्म पत्री श्रीमती सुमन इसमें स्वत प्रेरणा से आर्य़ी। सामाज़वादी पार्टी के सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह भी तिब्बत को समर्थन देने के लिए उपस्थित थे। प्रदर्शन में भाग लेने वाले निष्क्रिय दर्शक मात्र नहीं थे बल्कि वे सभी सक्रियतापूर्वक सामाजिक सरकारों जुड़े हुए लोग थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक औऱ संघ की केन्द्रीय कार्य़कारिणी के सदस्य इन्द्रेश कुमार ने, जो पिछले कुछ सालों से तिब्बत के प्रश्रपर जन-समर्थन के लिए आन्दोलन चला रहे है, इस प्रदर्शन में कुछ खरी-खरी और बेलाग बातें कही। इन्द्रेश कुमार जी का कहना था कि कुछ लोग इस कारण निराश हो सकते हैं कि भारत सरकार तिब्बत के प्रश्रफर सक्रियता नहीं दिखा रही है पर ऐसा जरूरी नहीं कि इस प्रश्रपर सरकार की तरह जनमानस भी अभिव्यक्ति प्रकट करे। तिब्बत का प्रश्र भी ऐसा ही है।
तिब्बत की स्वतन्त्रता के प्रश्र पर भारतीय जनमानस एर ओर है औऱ भारत की सरकार दुसरी ओर है। देशों के रिशते जनता के स्तर पर पक्के होते हैं और कई बार सरकारें इन प्रश्रों पर बूरी तरह असफल रहती हैं। उन्होंने कहा-चीन सरकार भी इस बात को अच्छी तरह जानती है कि तिब्बत के प्रश्र पर भारत सरकार भारतीय जनमत का प्रतिनिधित्व नहीं करती, इसलिए बीजिंग ने अब भारतीय पत्रकारों और अन्य सामाजिक कार्यक्रताओं को चीन में बुलाकर उन को तिब्बत के प्रश्र पर चीन समर्थक बनाने के प्रयास प्रारम्भ किये हैं। लेकिन भारत और तिब्बत के हजारों सालके रिशते इतने परिपक्क हैं कि चीन के ये प्रयास प्राय निष्फल सिद्ध हो रहे है। इस आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन को देखकर लगता था कि चीन के प्रति भारत सरकार ने जो नीति तैयार कर रखी है, उसका जवाब भारतीयों ने देना शुरू कर दिया है। ऐसी भी खबरें मिल रहीं हैं कि इस प्रकार के प्रदर्शन कई प्रदेशों की राजधानियों में भी हुए हैं। तिब्बत के प्रश्र को लेकर निश्र्चय ही यह शुभ सन्देश है।
डा. कुलदीप चन्द अग्रिंहोत्री