(थुबतेन सामफेल , तिब्बत डाट नेट, 13 सितंबर, 2012)
एशिया और अन्य जगहों के विद्वानों और सामरिक चिंतकों में महाद्वीप के लिए तिब्बत के अत्यंत भू-राजनीतिक एवं पर्यावरणीय महत्व को नर्इ स्वीकृति मिली है। गौरतलब है कि एशिया में इस पृथ्वी की करीब आधी जनसंख्या रहती है। यह मान्यता असल में पिछले 30 साल से भी ज्यादा समय से चीन के जबर्दस्त आर्थिक वृद्धि की वजह से है। यह कोर्इ दुर्घटना नहीं है कि चीन की तेज आर्थिक वृद्धि उसके साथ ही शुरू हुर्इ, जब चीन ने तिब्बत की खोज खनिजों, जल और ऊर्जा के एक विशाल और अब तक दोहन न हुए स्रोत के रूप में की। तिब्बत के पठार के महत्व की नर्इ तारीफ चीनी वैज्ञानिकों के इस खोज के बाद बढ़ती गर्इ कि यह पठार दुनिया का तीसरा धु्रव है और ‘एशिया का वाटर टावर है।’ इसके अतिरिक्त चीनी भूगर्भ वैज्ञानिकों ने तिब्बत में 130 से ज्यादा खनिजों की पहचान की है और वहां यूरेनियम, क्रोमाइट, बोरोन, लीथियम, बोरैक्स और आयरन के दुनिया के बड़े भंडार हैं।
चीन जब तक तिब्बत के प्राकृतिक संसाधनों को जिम्मेदारी और टिकाऊपन से इस्तेमाल करता है तब तक उसे अपने कारोबार का हिस्सा बना सकता है, लेकिन इसके प्रमाण कम ही मिल रहे हैं। तिब्बत में इसके विरोध में सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं जिसमें तिब्बती यह शिकायत कर रहे हैं कि जमकर, बहुत ज्यादा खनन गतिविधियां चलाने से वहां की नदियां प्रदूषित हो रही हैं और इसका मनुष्यों एवं जानवरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। हालांकि, चीन तिब्बत से निकलने वाली 10 प्रमुख नदियों के तंत्र के साथ क्या कर रहा है, (जो दुनिया की जनसंख्या के करीब 47 फीसदी हिस्से के लिए जीवनदायिनी हैं) यह एक अलग चिंता का विषय है। अब यह सिर्फ तिब्बत के लोगों तक सीमित समस्या नहीं रह गर्इ है बलिक समूचे एशिया की समस्या बन गर्इ है। नदियों पर बांध बनाने और दक्षिण से उत्तर की ओर नदियों को मोड़ने के पीछे चीन का असल इरादा क्या है और इस तरह के कार्यों का निचली धाराओं में रहने वाले देशों पर क्या असर हो सकता है?
चीन के इरादों को लेकर चिंता वर्ष 2005 में काफी बढ़ गर्इ जब एक उकसाने वाले शीर्षक ‘तिब्बतस वाटर विल सेव चाइना’ (तिब्बत का जल चीन को बचाएगा) की पुस्तक का प्रकाशन हुआ। वैसे तो यह सरकारी नीति की आधिकारिक घोषणा नहीं थी, लेकिन इसे चीनी जनमुकित सेना के एक पूर्व अधिकारी ली लिंग ने लिखा था और इसकी व्यापक तौर पर बिक्री से भारतीय नीति नियंताओं के कान खड़े हो गए। ब्रह्रापुत्र सहित तिब्बत की नदियों को उत्तर की ओर मोड़ कर वहां की गंभीर जल संकट को दूर करने की लिंग की व्यग्रता खतरे की घंटी बजने के लिए काफी थी।
तिब्बत में नदियों पर बांध बनाने और नदियों की धारा मोड़ने की प्रस्तावित योजना ऐसे समय में चल रही है जब एशिया पर जल संकट मंडरा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि अब जल दुनिया के सबसे तंगी वाले महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में तेल को पीछे छोड़ने के लिए तैयार है। तिब्बत से निकलने वाली नदियों के जल के विभिन्न तरह के इस्तेमाल की चीन की योजना से यह विवाद तेज हो गया है कि इनका निचली धाराओं वाले देश पर क्या असर पड़ सकता है। अब तो जल युद्ध तक की बातें होने लगी हैं। जल संसाधनों के संरक्षण के लिए जरूरत इस बात की है कि कोर्इ भी पक्ष जल इस तरह से न खींचे या उसकी दिशा मोड़े जिससे समूची परिस्थिति पर ही असर पड़ता हो। वैसे तो भारत से लेकर पाकिस्तान, दक्षिण पूर्व एशिया और चीन तक कर्इ एशियार्इ देशों में अंतर्राज्यीय जल साझेदारी विवाद आम बात हो गए हैं, लेकिन साझेदारी वाले जल संसाधनों को लेकर अंतरराष्ट्रीय टकराव की संभावना भारी चिंता का विषय होना चाहिए।
इन सभी चर्चाओं का केंद्रबिंदु तिब्बत है। तिब्बत का पर्यावरण के लिए महत्व क्या है, यह इन बातों से समझा जा सकता है कि यह एशिया में मानसून निर्माण करने वाला और दोनों धु्रवों के बाद सबसे ज्यादा हिमनदियों के संकेंद्रण वाला इलाका है जिनसे 10 बड़ी नदियों को जीवनदायिनी जल की पूर्ति होती है। इन नदियों पर निचली जलधाराओं के पास रहने वाले लाखों लोग निर्भर हैं। हालांकि, तिब्बत का भू-राजनीतिक महत्व ब्रिटिश राज के दौरान सबके सामने आया। इसका भू-राजनीतिक महत्व इसके बड़े इलाके और तादाद में उपलब्ध जमीन पर आधारित है और इसी वजह से चीन तिब्बत को पहली प्राथमिकता दे रहा है।
तिब्बत दुनिया का सबसे ऊंचा और सबसे बड़ा पठार है, जो करीब 25 लाख वर्ग किमी. जमीन पर फैला हुआ है, जिसकी समुद्र तट से औसत ऊंचार्इ 4000 मीटर से ज्यादा है। यह पठार पूर्व से पशिचम की ओर 2,400 किमी. और उत्तर से दक्षिण की ओर 1,448 किमी. तक फैला हुआ है। इसका समूची दक्षिणी किनारा दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला हिमालय से आच्छादित है। किसी भी युग में यहां तक कि परमाणु युग में भी ऐसा जमीन कवच एक दुर्जेय बफर या अवरोध पेश करता है जिसकी वजह से कोर्इ भी ताकत तिब्बत को पार नहीं कर पाती। वैसे तो चीन के लिए खुद तिब्बत कोर्इ असितत्वपरक खतरा नहीं पैदा करता, लेकिन इतिहास में कर्इ ऐसे दौर आए हैं जब करीब 666 र्इस्वी के आसपास चीन के तांग शासन के समय तिब्बती इस पठार से बाहर निकले हैं और उन्होंने संपन्न रमणीक शहरों खोतान, कुछा, कराशर और तुर्किस्तान के काशगर शहरों तक प्रभाव जमाया है। तिब्बती राजाओं का शासन सिल्क रूट के दक्षिणी हिस्से और खोतान, लोब-नार और दुनछुंग पर 8वीं से 9वीं शताब्दी में करीब 50 साल तक रहा है। सन 763 में तिब्बती सेनाओं ने चीनी नरेश की राजधानी छांग-एन (मौजूदा चीन के शियान) पर कब्जा कर लिया और नए शासक को ताज सौंप दिया। तिब्बत के पठार के बाहर तिब्बती सैन्य गतिविधियों का यह दौर कर्इ ऊर्जावान राजाओं के दौर में देखा गया जो करीब तीन सौ साल चला। तिब्बती राजशाही युग के अंतिम महान नरेश त्रि रेल्पाछेन हुए जिन्होंने चीन के साथ एक शांति समझौता (821-822 र्इस्वी में) कर यह सुनिशिचत करने की कोशिश की कि उनके शासन के दौरान बौद्ध धर्म का प्रसार ज्यादा से ज्यादा हो।
त्रि रेल्पाछेन के बाद तिब्बती साम्राज्य ढह गया और तिब्बत छोटे-छोटे सामंती जागीरों में बंट गया। लेकिन बौद्ध धर्म को तिब्बती जनता के मुख्य मूल्यों के रूप में शामिल करने की तिब्बत की सफलता से वहां के लोगों ने भौतिक प्रवृतित की जगह बौद्ध निवृत्त मार्ग और जीवन के विचारशील रास्ते को अपना लिया। इसके बाद से तिब्बत कभी भी चीन के लिए खतरा नहीं बना।
लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्थायी कब्जे के बाद यह सब बदल गया। इससे चीन ने तिब्बत के भू-राजनीतिक महत्व को समझा। तब पशिचमी प्रभुत्व वाली दुनिया ने दो साम्राज्यों को अपना अधिकार जमाने की प्रतिस्पर्धा में खड़ा कर दिया।
यह महान खेल या प्रतिछाया की प्रतिस्पर्धा ब्रिटिश और रूसी साम्राज्य के बीच मध्य एशिया पर प्रभुत्व हासिल करने के सामरिक प्रतिद्वंद्विता का नतीजा थी। ब्रिटिश परिप्रेक्ष्य से मध्य एशिया में रूसी साम्राज्य के बढ़ते विस्तार से ब्रिटिश साम्राज्य के ‘ताज के हीरे’ भारत के नष्ट होने का खतरा था। ब्रिटिशों को डर था कि अफगानिस्तान भारत में रूसी आक्रमण के लिए रास्ता बन सकता है।’
1890 के दशक तक मध्य एशिया के देश एक-एक कर रूसी साम्राज्य के तहत आते गए। मध्य एशिया के जार के पकड़ में आने के बाद यह विशाल खेल अब पूर्व में चीन, मंगोलिया और तिब्बत की ओर पहुंच गया। वर्ष 1904 में ब्रिटिश सैनिकों ने ल्हासा पर आक्रमण कर दिया, यह रूसी घुसपैठ और 13वें दलार्इ लामा के दूतों एवं जार निकोलस द्वितीय के बीच गुप्त बैठकों के बदले में पहले ही आक्रामक बन जाने का हमला था। 13वें दलार्इ लामा भागकर मंगोलिया और चीन चले गए।
हमलावर ब्रिटिश सेना को तिब्बत में किसी रूसी प्रभाव का कोर्इ साक्ष्य नहीं मिला। लेकिन इस ब्रिटिश हमले का सबसे ज्यादा असर मांचू चीन में देखने को मिला। पूरे इतिहास के दौरान चीन बड़े क्षेत्र में लूटमार करने वाले बंजारों, मंगोलिया की खुली घासभूमि और मंचूरिया से खतरे का सामना करता रहा है। मंचूरिया ने तो चीनी राजा के ताज को हड़प लिया और वहां अपने वंश का शासन स्थापित किया था।
19वीं सदी में चीन को महासागरों के पार से पशिचमी उपनिवेशवादी ताकतों के रूप में नए खतरों का सामना करना पड़ा जो तेजी से बढ़ते जापान से हाथ मिला रहे थे और कमजोर हो चुके मांचू शासक से अपमानजनक व्यापार शर्तें और क्षेत्रीय रियायतें हासिल कर रहे थे। मंगोलिया की घास भूमि से लगातार खतरे और अब महासागरों के पार से नए खतरे को देखते हुए चीन ने अपने ‘पिछवाड़े को सुरक्षित रखने के लिए’ तिब्बत को एक प्रभावी बफर इलाके के रूप में देखना शुरू किया। लेकिन जब ब्रिटिश शासकों ने इस बफर को भी तोड़ दिया तो मांचू चीन के शासकों के आंखों पर पड़ी पटटी दूर हो गर्इ। इस बफर के उल्लंघन के बाद कमजोर मांचू चीन को यह बात समझ में आ गर्इ कि तिब्बत के रास्ते ब्रिटिश लोग चीन पर आक्रमण कर सकते हैं। ऐसा होने से रोकने का एकमात्र तरीका यह था कि तिब्बत पर नियंत्रण कर लिया जाए। जैसा कि एक मांचू अधिकारी ने कहा था, तिब्बत हमारे राष्ट्रीय सीमाओं का टेक है, वह हाथ जो हमारे चेहरे को बचाता है।
तिब्बत पर हमले के लिए जनरल झाओ अरफेंग को चुना गया जिसने 1906 में पूर्वी तिब्बत पर कब्जा कर लिया और 1910 में ल्हासा में सैनिकों के साथ मार्च किया। उसने पाया कि, इस बार दलार्इ लामा अपने प्रमुख मंत्रियों के साथ भागकर भारत चले गए हैं।
तिब्बत पर मांचू चीन के आक्रमण से मध्य एशियार्इ कूटनीति के प्रमुख संचालक सिद्धांत बिखर गए। तिब्बत ने मंगोलों और मांचू (दोनों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था) के साथ जो पुरोहित-यजमान संबंद्ध कायम किए थे वह इस बात पर आधारित था कि तिब्बत के पुजारी इन शासकों को आध्यातिमक सेवा मुहैया कराएंगे जो इसके बदले में अपने पुरोहित की रक्षा करेंगे और उसे सुरक्षा प्रदान करेंगे। इस तरह की कूटनीति में या जिसे मैं ‘तिब्लोमैसी’ कहता हूं, कभी भी इस संभावना का अंदाजा नहीं था कि रक्षक ही एक दिन अपने रक्षित पर टूट पड़ेगा। जब ऐसा हुआ तो तिब्बत ने अपनी रक्षा के लिए ब्रिटिश भारत की तरफ रुख किया। वैसे तो ब्रिटिश शासकों ने इस मुशिकल का शुरू में ही अंदाजा लगा लिया था, लेकिन वे इसे नजरअंदाज करते रहे, तब तक जब 1911 में चीनी क्रांति ने तिब्बतियों को एक बार में ही यह मौका दिया कि वे मांचुओं के साथ अपने सभी अवांछित संपर्क से पीछा छुड़ा लें।
जब अक्टूबर 1911 में सन यात-सेन के नेतृत्व में होने वाली क्रांति की खबर ल्हासा पहुंची तो तिब्बत की राजधानी में सिथत मांचू सेनापति ने बगावत कर दिया। तिब्बती सरकार ने इन सैनिकों को बाहर निकालकर उन्हें भारत होते हुए चीन जाने को मजबूर किया। 13वें दलार्इ लामा जनवरी 1913 में ल्हासा लौट आए। उन्होंने समूचे तिब्बत के लिए एक आदेश जारी किया, जिसको सभी तिब्बती लोग तिब्बती स्वतंत्रता की औपचारिक घोषणा मानते हैं। हालांकि, 1911 की चीनी क्रांति जो बहुत ज्यादा उम्मीदों के साथ शुरू हुर्इ थी, गुटों की आपसी लड़ार्इ और सेनापतियों के गृहयुद्ध तब्दील हो गर्इ जिसने जापानी हमले और कब्जा करने को आमंत्रण दिया।
चीनी गृह युद्ध 1949 में खत्म हुआ जब माओ त्से तुंग और उनके सशस्त्र कम्युनिस्ट कामरेडों ने राष्ट्रवादी चीनियों को ताइवान के द्वीप में खदेड़ दिया। माओ त्से तुंग ने जल्दी ही तिब्बत और हैनान द्वीप को ‘मुक्त’ करने का वादा किया। लेकिन तिब्बत पर हमला करने से पहले माओ भरोसा चाहते थे। उन्होंने स्टालिन से परामर्श किया। यहां दो तानाशाहों के बीच जो कुछ बातचीत हुर्इ उसका वर्णन ‘माओ: दि अननोन स्टोरी’ में किया गया है।
जब वे 23 जनवरी 1950 को स्टालिन से मिले तो उन्होंने पूछा कि क्या ‘तिब्बत पर हमले की तैयारी कर रहे’ चीनी सैनिकों को सोवियत वायु सेना साजो-सामान की आपूर्ति कर सकती है। तो स्टालिन ने कहा: ‘यह अच्छी बात है कि आप हमले की तैयारी कर रहे हैं। तिब्बतियों को नियंत्रण में लेना ही चाहिए।’ स्टालिन ने यह भी सलाह दी कि तिब्बत और अन्य सीमावर्ती इलाकों को हान चीनियों से पाट दें। उन्होंने कहा: ‘सीक्यांग की जनसंख्या में नस्लीय चीनियों की संख्या 5 फीसदी से ज्यादा नहीं है, वहां नस्लीय चीनियों की संख्या को 30 फीसदी तक लाया जाना चाहिए। वास्तव में अन्य सभी सीमावर्ती क्षेत्रों को चीनी जनसंख्या से भर देना चाहिए।’ यही वास्तव में उसके बाद चीनी कम्युनिस्ट शासकों ने किया है।
नए चीनी कम्युनिस्ट साम्राज्य द्वारा समूचे तिब्बती पठार को हड़प लेने से चीनियों को संभावित घुसपैठियों को ललचाने और उन्हें भगा देने के बारे में असाधारण सामरिक गहरार्इ हासिल हुर्इ और उनके खिलाफ कर्इ मोर्चों पर आक्रामक होने और उन पर काबू के लिए जबर्दस्त सैन्य पहुंच बन गर्इ।
सिर्फ एक साधारण वजह से तिब्बत चीन की सामरिक गणनाओं में महत्वपूर्ण था कि हिमालय चीन की प्रतिरक्षात्मक और आक्रामक जरूरतों के लिए सर्वश्रेष्ठ फायदेमंद बिंदु था। इस फायदे का पूरक बनाना एक और कारक था। अपने स्थानिक विशालता के बावजूद अपनी विरल जनसंख्या के भौतिक रूप से पिछड़े होने की वजह से तिब्बत कोर्इ महत्वपूर्ण बाजार नहीं था। हालांकि, आध्यातिमक एवं सांस्कृतिक रूप से काफी प्रबल था, एक विशिष्ट संस्कृति का केंद्र था, तिब्बती बौद्ध सभ्यता के बेहतरीन मसितष्कों के लिए एक चुम्बक जो पशिचम में लद्दख से लेकर पूर्व में चीनी प्रांत सिचुआन एवं युन्नान तक, दक्षिण में हिमालय से लेकर मंगोलियार्इ घास के मैदान तक और उत्तरी तिब्बत के विशाल बंजर भूमि तक फैला हुआ था। चीन द्वारा तिब्बत पर हमले और कब्जे के बाद दुनिया ने जबर्दस्त सामरिक और पर्यावरणीय महत्व वाले एक विशाल भूभाग को खो दिया और एक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति को भी खो दिया जिसकी इस मामले में काफी प्रासंगिता है कि लोगों को अपने जीवन का नेतृत्व किस तरह से करना चाहिए। अचरज इस बात में नहीं था कि तिब्बत किस तरह से खत्म हो गया, बल्कि इस बात में कि दुनिया ने आखिर ऐसा कैसे होने दिया। तिब्बती जनता की सभ्यता हम सबकी आंखों के सामने से गायब हो रही है और यहां कुछ मंद विरोध के अलावा बाकी दुनिया बिना किसी विरोध और पश्चाताप के ऐसा होने दे रही है।
दुनिया की उदासीनता की सेरिंग शाक्य ने बहुत अच्छे तरीके से व्याख्या की है:
इस बारे में आम सहमति है कि संयुक्त राष्ट्र तिब्बत की कोर्इ मदद नहीं कर सकता। अमेरिकियों को लगता है कि बहस करने से कम्युनिस्ट विरोधी दुष्प्रचार का उद्देश्य पूरा होगा, लेकिन वे अपने एजेंडे में किसी तरह की कार्रवार्इ को रखने के लिए तैयार नहीं हैं। ब्रिटेन और भारत, दोनों की सोच यह है कि संयुक्त राष्ट्र का कोर्इ प्रस्ताव बस इस बयान तक सीमित होना चाहिए जिसमें दोनों पक्षों से यह आहवान किया जाए कि वे अपने मतभेद शांतिपूर्ण तरीके से हल करें क्योंकि ‘कड़े प्रस्ताव (जैसे चीन से यह कहने कि वह तिब्बत से अपनी सेनाएं हटाए और यथासिथति बहाल करे) को चीन नजरअंदाज कर सकता है और इससे संयुक्त राष्ट्र अपनी प्रतिष्ठा खो देगा।’
इस तरह तिब्बती जनता की दशा के लिए दुनिया की बेरुखी ने तिब्बतियों की नियति पर ताला लगा दिया। तिब्बत का नुकसान निशिचत रूप से तिब्बती जनता का नुकसान है। लेकिन तिब्बत की भूमिका के लिए हमारी नर्इ समझ के बाद, चाहे वह एशिया में मानसून की प्रवृतित को प्राथमिक रूप से आकार देने वाले की हो या एशिया के अधिकांश हिस्से के लिए जल के स्रोत के रूप में या प्रमुख खनिज भंडार के रूप में, तिब्बती जनता का नुकसान एशिया का भी नुकसान है। इस संभावना से कि चीन तिब्बत की जलधाराओं को मोड़ सकता है जिससे ज्यादातर एशिया में नदियां सूखी रह सकती हैं, एशिया के लोग अब इस रवैए को ही अपनाकर नहीं चल सकते कि तिब्बत सिर्फ तिब्बती जनता की समस्या है और यह पूरे एशिया के लिए चुनौती नहीं है। नदियों की जलधाराओं को नियंत्रित करने के लिए उन पर बांध बनाना, नदियों के जल को दक्षिण से उत्तर की ओर मोड़ने की गंभीर योजनाएं, जोखिमपूर्ण तरीके से नदी तटों के पास खनिज पदार्थों का खनन और शेष एशिया में बहने वाली नदी जल में भारी प्रदूषण की संभावना से तिब्बत अब समूचे एशिया के लिए ऐसा जरूरी मसला बन गया है जिसे चीन के सामने उठाना चाहिए।
चीन को इस बात के लिए मनाने से कि वह तिब्बतियों को असल स्वायत्तता का आनंद लेने देने की बुद्धिमत्ता दिखाए, समूचे एशिया की समृद्धि बने रहना भी सुनिशिचत हो सकेगा। भारत के प्रमुख सामरिक चिंतक और विश्लेषक ब्रह्रा चेलानी सारगर्भित तरीके से इस तर्क को उठाते हैं। वह कहते हैं, तिब्बत मसले को अक्सर राजनीतिक या सांस्कृतिक पदों में पेश किया गया है, जिसमें चीन सरकार और नस्लीय तिब्बतियों को मुख्य खिलाड़ी माना गया है। लेकिन तिब्बत का मसला इससे काफी बड़ा और ज्यादा बुनियादी है। यह एशिया के जल एवं जलवायु सुरक्षा और उसके पारिसिथतिकी हितों के बारे में है। यह महत्वपूर्ण संसाधनों के बारे में है। बुनियादी रूप से यह एशिया के भविष्य को सुरक्षित करने के बारे में है।
हालांकि, एशिया के लिए चीन के साथ अपनी जल समस्या को हल करने के लिए एक रास्ता है। वर्ष 2008 में परमपावन दलार्इ लामा के दो दूत लोदी ग्यारी और केलसांग ग्यालत्सेन ने बीजिंग में चीन सरकार को एक ज्ञापन देकर तिब्बती जनता को वास्तविक स्वायत्ता देने की मांग की थी। इस ज्ञापन में तिब्बती जनता की मुख्य मांग शामिल थी: सभी तिब्बती जनता के लिए एक प्रशासन के तहत वास्तविक स्वायत्तता प्रदान करना। यह मांग चीन जनवादी गणराज्य के संविधान के भीतर ही पूरी की जा सकती है, लेकिन चीन सरकार ने इसे खारिज कर दिया है।
तिब्बतियों के स्वायत्तता के नवीनतम प्रस्ताव को खारिज कर देने से किसी को अचरज नहीं हुआ होगा। कोर्इ भी ताकत जो यह सोचती है कि उसके पास वार्ता की मेज पर सारे कार्ड हैं, असल में थोड़ी भी रियायत देना नहीं चाहती। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसकी सैन्य ताकत भी कम नहीं है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि जल्दी ही एक वैशिवक ताकत के रूप में चीन अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। बो शिलार्इ के चल रहे स्कैंडल से हिल चुका और एक चरम विद्रोही वकील छेन गुआंगछेंग के बीजिंग के अमेरिकी दूतावास में शरण लेने से शर्मिंदा चीनी राजनीतिक व्यवस्था अब भी स्थिर दिखती है। इन बढ़त की वजह से चीन को कोर्इ भी बात मजबूर नहीं कर पा रही है कि वह चीन के विशाल साम्राज्य के हाशिए पर स्थित असंतुष्ट लोगों के समूह को कोर्इ रियायत दे। हालांकि, यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि आखिरकार चीन ने तिब्बतियों से वार्ता की है।
निर्वासित तिब्बतियों का चीन के साथ 1979 से 1993 और 2002 से 2010 के बीच संपर्क का रोचक संदेश निकलता है। चीन के लंबे और असाधारण इतिहास में कभी भी किसी ‘बर्बर’ समूह के प्रतिनिधियों को साम्राज्य की राजधानी में सिर्फ अपनी मांगे मांगने के लिए बैठने की इजाजत नहीं दी गर्इ है। आखिरकार वार्ता तो हुर्इ, इसका कुल मिलाकर यह मतलब है कि चीन तिब्बतियों से कुछ ऐसा चाहता है जो उसके पास नहीं है: वैधानिकता। यह तिब्बती जनता पर निर्भर है कि तिब्बत पर शासन करने के ‘स्वर्ग के आदेश’ को बीजिंग को दें या उससे छीन लें। जब तक उनकी वाजिब मांगों का चीन संतोषजनक तरीके से समाधान नहीं करता, तिब्बती जनता तिब्बत में चीन की मौजूदगी को वैधानिकता देने से इनकार करती रहेगी, इसका नवीनतम उदाहरण है पूर्वी तिब्बत मेें 51 से ज्यादा आत्मदाह, जिनमें बार-बार तिब्बत की आज़ादी की मांग की गर्इ। जब तक चीन के पास वैधानिकता नहीं है, वह तिब्बतियों से वार्ता की इच्छा जताता रहेगा। चीन पर तिब्बतियों की शिकायतों के समाधान के लिए सामूहिक रूप से दबाव बनाने का एशिया का मामला एक और वजह से भी मजबूत हो जाता है, वह है आध्यातिमकता। तिब्बत और एशिया के ज्यादातर हिस्सों में मुख्य मूल्य व्यवस्था के तहत साझा बौद्ध धर्म प्रचलित है।
तिब्बती जनता अपने पारिसिथतिकी रूप से नाजुक पठार के जिम्मेदार प्रबंधक की परंपरागत भूमिका निभाती रही है। वे ऐसा सतत रूप से हजारों साल से करते आए हैं। इसे फिर से बहाल करना समूचे एशिया के हित में होगा। जब तिब्बत के पठार के अभिभावक की उनकी पारंपरिक भूमिका की बहाली की जाएगी तो तिब्बत की जनता पठार का प्रबंधन बौद्ध सिद्धांतों के आधार पर करेगी। वे तिब्बत के पठार का सम्मान ßएक ऐसे शांति क्षेत्र के रूप में करेंगे जो अहिंसा, करुणा और प्राकृतिक पर्यावरण को बचाने के सिद्धांतों पर आधारित होगा, जिसकी प्रेरणा करुणा, न्याय और समानता के बौद्ध सिद्धांतों से मिलती है। भविष्य का तिब्बत संतुलन और सौहार्द के लिए प्रयास करेगा, जिसमें मानव-मानव और मानव-पर्यावरण के बीच संतुलन होगा, इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कि हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी है। यह दृषिट साझेदारी, सौहार्द और लोगाें के बीच सहयोग के रवैए पर आधारित है।
तिब्बत की तरफ से समूचा एशिया बोले, यह आज चीन में चल रही सोच के बिल्कुल अनुकूल होगा। चीन के कर्इ प्रमुख दिग्गजों जैसे जेल में बंद चीनी नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाले साहित्यकार लिउ शियाबाओ, स्वर्गीय भौतिकविद फैंग लिझी (चीन में आज़ादी की तीन आवाजों में एक माने जाने वाले) और कर्इ अन्य जन विद्वानों ने दलार्इ लामा द्वारा प्रचारित मध्यम मार्ग नीति का समर्थन किया है। चीन के मौजूदा तरल राजनीतिक हालात में जिसमें देश के प्रधानमंत्री राजनीतिक सुधार की अत्यंत जरूरत बता रहे हैं, चीन के नवोदित सिविल सोसाइटी में संयम और सहिष्णुता की ये आवाजें तिब्बत के प्रति चीन के रवैए को आकार देंगी। एशिया की यह मांग कि चीन अपने तिब्बती लोगों के साथ बेहतर तरीके से पेश आए और उन्हें तिब्बत पठार को टिकाऊ एवं प्रभावी तरीके से प्रबंधित करने का अधिकार दे, चीन की प्रगतिशील सोच के अनुरूप ही है। इससे एशिया की यह मांग भी पूरी होगी कि तिब्बत में उसके जल स्रोतों को बंद न किया जाए।
(थुबतेन सामफेल केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के थिंकटैंक ‘तिब्बत पालिसी इंस्टीटयूट’ के निदेशक हैं। उन्होंने यह पेपर गत 12 सितंबर, 2012 को सारा कालेज आफ हायर तिब्बत स्टडीज में ‘तिब्बत एवं ताइवान: संभावनाएं और चुनौतियां’ विषय पर आयोजित एक सम्मेलन में पेश किया था)