चीन-तिब्बत वार्ता पर एक नजर
परम पावन दलाई लामा का लगातार यह कहना है कि तिब्बत मसले का हल तिब्बती जनता के पूर्ण हित को ध्यान में रखते हुए वार्ता के द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से करना चाहिए।
चीन ने जब तिब्बत पर धावा बोल दिया था तो उसके तत्काल बाद 1951 में परम पावन ने खुद ल्हासा में चीनी कमांडरों से बातचीत की थी और 1954 में माओ और चाउ एन-लाई से भी वार्ताएं की थीं ताकि संघर्ष और खूनखराबे को रोका जा सके। 1959 के तिब्बती राष्ट्रीय विद्रोह के खूनी दमन के बाद जब परम पावन भारत आए तब भी उन्होंने बातचीत के द्वारा शांतिपूर्ण हल निकालने का आह्वान किया, लेकिन अतिवादी कम्युनिस्ट सुधारों के वर्षों में और तथाकथित सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीनी नेतृत्व बातचीत करना ही नहीं चाहता था।
माओ के निधन के बाद सांस्कृतिक क्रांति का भी अंत हो गया और उदारीकरण एवं खुले दरवाजे की नीति शुरू हुई। नए चीनी नेतृत्व ने निर्वासित तिब्बती सरकार से संपर्क करने का साहसिक कदम उठाया । साल 1978 के अंत में हांगकांग में सिनहुआ न्यूज एजेंसी-जो असल में पीआरसी का दूतावास ही था-के प्रमुख ली जुइसिन ने परम पावन दलाई लामा के बड़े भाई ग्यालो थोनडुप से संपर्क किया और उन्हें चीन की निजी यात्रा पर आने का आमंत्रण दिया। थोनडुप ने परम पावन दलाई लामा से इसकी इजाजत मांगी और फरवारी-मार्च 1979 के दौरान बीजिंग की यात्रा की। वहां वे कई चीनी नेताओं के अलावा 12 मार्च 1979 को सर्वोच्च नेता डेंग जियोपिंग सी भी मेले। डेंग ने थोनडुप से कहा, आजादी के अलावा अन्य सभी मसलों पर बातचीत हो सकती है।
उन्होंने तिब्बती नेतृत्व को यह आमंत्रण दिया कि वे तिब्बत में अपना प्रतिनिधिमंडल भेजें और स्थितियों को खुद देखें। इसके परिणामस्वरूप निर्वासित तिब्बती नेतृत्व ने तिब्बत में 1979 और 1980 के बीच तीन तथ्यान्वेषी दल भेजे। चीन के रोकने के लाख प्रयास के बावजूद जहां भी प्रतिनिधिमंडल के सदस्य गए लोगों ने उन्हे घेर लिया और-धरती के नर्क-की उन दुखद सचाइयों को विस्तार से बताया जिनका पिछले दो दशकों से उन्हें और उनके परिवारों को सामना करना पड़ रहा है।
साल 1980 में कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव हू याओ बैंग ने तिब्बत की ऐतिहासिक यात्रा की और उन गलतियों को स्वीकार किया जो उनकी सरकार द्वारा की गई । उन्होंने कई नीतिगत बदलावों की घोषणा की जिसमें यह भी शामिल था कि तिब्बत से अधिकांश चीनी फौजों को हटा लिया जाएगा। साल 1981 में चीन सरकार ने यह इच्छा जाहिर की कि वह दलाई लामा को-मदरलैंड-तिब्बत में नहीं सिर्फ चीन में-वापस बुलाना चाहता है, लेकिन उसने किसी भी तरह की राजनीतिक बातचीत की संभावना से इनकार किया। इस तरह से तिब्बत मसले को सिर्फ दलाई लामा की वापसी के शर्त तक सिमित करने का प्रयास किया गया। इसके बाद बातचीत के लिए दो वरिष्ठ तिब्बती प्रतिनिधिमंडल 1982 और 1984 में बीजिंग भेजे गए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मसला सिर्फ दलाई लामा की वापसी का नहीं बल्कि 60 लाख तिब्बतियों के कल्याण का भी है और उत्सांग, खाम एवं आमदो में रहने वाली समूचे तिब्बती जनता की आजादी से कम पर कोई राजनीतिक बातचीत नहीं हो सकती। लेकिन हू याओ बैंग को पद से हटा देने-इसके पीछे एक कारण यह भी था कि उन्होंने तिब्बत मसले को हल करने की इच्छा जाहिर की थी-बातची का रास्ता बंद हो गया और सुधारों के घोषित कदम भी वापस ले लिए गए।
इसके बाद तिब्बती नेतृत्व के सामने एकमात्र यही रास्ता रह गया कि वे सीधे अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सहयोग की अपील करें। यूनाइटेड स्टेट्स कांग्रेसनल हयूमन राइट्स काकस को 21 सितंबर 1987 को संबोधित करते हुए परम पावन ने तिब्बत के लिए पांच सूत्रीय शांति योजना की घोषणा की । ये पांच बिंदु हैः
1. समूचे तिब्बत को शांति क्षेत्र में बदलना।
2. चीन अपनी जनसंख्या स्थानांतरण नीति बंद करे जिससे तिब्बती लोगों का एक जनता के रूप में अस्तित्व ही खतरे में है।
3. तिब्बती जनता के बुनियादी मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक आजादी का सम्मान किया जाए।
4. तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण की पुनर्बहाली एवं संरक्षण किया जाए और तिब्बत को नाभिकीय हथियारों के उत्पादन एवं परमाणु कचरे के कूड़ेदान की तरह इस्तेमाल करना चीन बंद करे।
5. तिब्बती की भविष्य की स्थिति क्या होगी और तिब्बती एवं चीनी जनता के बीच किस तरह के संबंध होंगे इसके बारे गंभीर वार्ताओं की शुरूआत की जाए।
परम पावन ने अपने भाषण में तिब्बती को आजादी बाहल करने की मांग नहीं की, इसकी जगह उन्होंने एक ऐसे हाल पर जोर दिया जिसके तहत चीन जनवादी गणतंत्र से अलग होने की जरूरत नहीं हैं और यह सहयोग पर आधारित होगा। लेकिन चीन की प्रतिक्रिया इस पर भी नकारात्मक ही रही और उसने दलाई लामा की बुरी तरह आलोचना की । इसका तिब्बत पर बड़े पैमाने पर विरोध हुआ और चीनी सशस्त्र बलों ने इस विरोध प्रदर्शन का हिंसक दमन किया। विरोध और दमान के इस चक्र का अंत मार्च 1989 में तिब्बत मे सैनिक शासन लगने के रूप में हुआ। तिब्बत में स्थिति खराब होते जाने के बावजूद परम पावन दलाई लामा ने चीन के साथ वार्ता के प्रयास जारी रखे।
इसके बाद 15 जून 1988 को परम पावन दलाई लामा ने स्ट्रासबोर्ग में यूरोपीय संसद के सदस्यों को संबोधित करते हुए पांच सूत्रीय शांति योजना का विवरण दिया और तिब्बत की भविष्य की स्थिति के बारे में चीन से वार्ताओं के लिए एक ढांचा पेश किया। स्ट्रासबोर्ग प्रस्तावों के रूप में जाने वाले इस पेशकश में परम पावन ने तिब्बत के तीनों प्रांतों के एकीकरण और कहा कि तिब्बत को एक “ऐसा स्वाशासित लोकतांत्रिक राजनीतिक निकाय बनाया जाए तिब्बती जनता की साझा भलाई और उनकी एवं उनके पर्यावरण की रक्षा के लिए चीन सरकार और तिब्बती जनता के समझौते के द्वारा स्थापित हो।”
परम पावन के प्रस्ताव की अनिवार्य विशेषता यह थी कि एक लोकतांत्रिक प्रणाली और अपने पसंद के नेताओं के माध्यम से तिब्बती लोग खुद पर शासन करेंगे और आंतरिक मामलों की जवाबदेही उनकी ही होगी। चीन सरकार विदेशी मामलों की देखरेख करेगी और उसे सिर्फ प्रति रक्षा के उद्देशय से तिब्बत में सीमित संख्या में सैन्य बलों को रखने की इजाजत होगी। इस प्रस्ताव और इसके बाद के अन्य प्रयासों के बारे में बीजिंग की प्रतिक्रिया मिलीजुली ही रही। 23 जून 1988 को चीन के विदेश मंत्रालय ने प्रेस के लिए एक बयान जारी किया जिसमें कहा गया कि चीन जनवादी गणतंत्र तिब्बत की “आजादी, अर्द्घ स्वतंत्रता या आजादी के किसी छद्म रूप को स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन इसके कुछ माहने बाद ही 21 सितंबर 1988 को नई दिल्ली स्थित चीनी दूतावास ने दलाई लामा के प्रतिनिधि से कहा कि उनकी सरकार दलाई लामा के साथ सीधे बातचीत करना चाहती है।
इसके बारे में अगले दिन प्रेस को जारी बयान में कहा गया, “दलाई लामा से बातचीत बीजिंग, हांगकांग या विदेश स्थित हमारे किसी भी दूतावास या वाणिज्य दूतावास में हो सकती है। यदि दलाई लामा के लिए इन स्थानों पर वार्ता सुविधाजनक नहीं है तो वह तो अपनी इच्छा से कोई भी स्थान चुन सकते हैं।” बयान में कहा गया कि वार्ता में किसी भी विदेशी को शामिल नहीं किया जा सकता और दलाई लामा द्वारा स्ट्रासबोर्ग में पेश नए प्रस्तावों को इस वार्ता का आधार नहीं बनाया जा सकता।
चीन सरकार के इस बयान पर उसी दिन प्रतिक्रिया देते हुए तिब्बती नेतृत्व ने प्रेस को जारी एक बयान में कहा, “हालांकि कई मसलों पर हम अलग विचार और दृष्टिकोण रखते हैं, लेकिन हम बातचीत करने और इन मसलों को सीधी वार्ता के माछ्यम से हल करने के लिए तैयार हैं।”
25 अक्टूबर 1988 को तिब्बती नेतृत्व ने नई दिल्ली स्थित चीनी दूतावास को संदेश भेजकर बताया कि वे जेनेवा में वार्ता करना चाहते हैं। लेकिन चीनी नेतृत्व ने तिब्बती नेतृत्व द्वारा चुने स्थान को खारिज कर दिया और दलाई लामा पर आरोप लगाया कि वे इस मामले में गंभीरता नहीं दिखा रहे। तिब्बती नेतृत्व द्वारा प्रस्तावित वार्ता के दल को भी खारिज करते हुए बीजिंग ने कहा कि वह दलाई लामा से व्यक्तिगात तौर पर बातचीत करना चाहता है।
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फरवरी १९७९
बीजिंग में देंग सियाओ पिंग परम पावन दलाई लामा के बडे भाई ग्यालो थोण्ड्रुप से मिले और कहा कि वह तिब्बतियों के साथ स्वतंत्रता की मांग छोड़कर किसी भी विषय पर बातचीत करने को तैयार हैं। देंग ने निर्वासित तिब्बतियों को तिब्बत जाकर स्वंय तिब्बत का वास्तविक हाल देखने का निमंत्रण दिया।
अगस्त १९७९
परमपावन दलाईलामा ने प्रथम तथ्य खोजी प्रतिनिधिमंडल तिब्बत भेजा।
मई १९८०
द्वितीय तथ्य खोजी प्रतिनिधिमंडल तिब्बत गया।
जुलाई १९८०
तीसरे तथ्य खोजी प्रतिनिधिमंडल की तिब्बत यात्रा।
सितम्बर १९८०
परमपावन दलाईलामा जी ने निर्वासित तिब्बती समुदाय से ५० प्रशिक्षित शिक्षकों को तिब्बत में शिक्षा के विकास में सहयोग के लिये भेजने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने चीन सरकार और तिब्बतियों के बीच विश्र्वास कायम करने के उदेच्च्य से ल्हासा में सम्पर्क कार्यालय खोलने का भी प्रस्ताव रखा। चीन ने इन दोनों प्रस्तावों को यह कहकर टाल दिया कि इसे कुछ समय के लिये अभी स्थगित करते हैं।
जुलाई १९८१
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव श्री हू याओबांग ने तिब्बती प्रस्तावों के जवाब में दलाई लामा के प्रति चीन का पांच सूत्रीय नीति” पेश की। दलाई लामा और उनके अनुयायियों के तिब्बत वापिस आने पर बल देते हुए कहा कि दलाई लामा के पास वही राजनीतिक अधिकार और रहन सहन की सुविधाएं मिलेंगी जैसी १९५९ से पहले थीं। न तो वह तिब्बत में रहेंगे और न ही किसी पद पर रहेंगे। लेकिन वह समय-समय पर तिब्बत जा सकते हैं। उनके अनुयायियों को अपनी रोजी-रोटी के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिये। यह सब उन्हें पहले से अच्छा मिलेगा।
अप्रैल १९८२
तीन सदस्यीय तिब्बती प्रतिनिधिमंडल चीनी नेताओं के साथ बातचीत की भावनाएं खोजने के लिये बीजिंग गया। चीनी नेता उन्हें दुराग्रही रूख के साथ मिले।
अक्तूबर १९८४
एक और दौर की बातचीत के लिये तीन सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल बीजिंग गया। इस बार भी समझौते की दिच्चा में कोई सार्थक प्रगति नहीं हुईर।
सितम्बर १९८७
अमेरिकी कांग्रेस के मानवाधिकार समूह को संबोधित करते हुये परमपावन दलाई लामा ने तिब्बत के लिये पांच सूत्रीय शांति प्रस्ताव की घोषणा की जिसमें उन्होंने तिब्बत के भविष्य पर गम्भीर वार्ता शुरू करने की बात कही।
जून १९८८
स्ट्रासबर्ग मे यूरोपीय संसद में बोलते हुये दलाई लामा जी ने पांच सूत्रीय प्रस्ताव की व्याख्या की और तिब्बत के सभी तीन प्रातों के लिये स्वशासी प्रजातांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का प्रस्ताव रखा। परमपावन जी ने कहा कि यह व्यवस्था चीनी गणराज्य के साथ मिलकर होगी और तिब्बत की विदेश नीति और सुरक्षा की जिम्मेदारी चीन सरकार के पास रहेगी।
सितम्बर १९८८
बीजिंग सरकार ने तिब्बतियों के साथ समझौता करने की इच्छा जतायी और कहा कि दलाई लामा समझौते के लिये स्थान और समय का चुनाव कर सकते हैं।
अक्तूबर १९८८
बीजिंग सरकार की इस उद्घोषणा का स्वागत करते हुये धर्मशाला ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर जनवरी १९८९ में जेनेवा में वार्ता शुरू करने का प्रस्ताव किया। इस वक्तव्य में तिब्बत वार्ता प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के नामों की भी घोषणा की गई। इसमें निर्वासित सरकार के छः पदाधिकारी और डच वकील माईकल वॉन वाल्ट कानूनी सलाहकार के रूप शामिल थे।
नवंबर १९८८
चीन सरकार अपने पूर्व के कठोर रूख पर लौट आई। उसने कहा कि स्ट्रासबर्ग प्रस्ताव वार्ता का आधार नहीं हो सकता। चीन ने बहुत सी शतेर रखते हुये कहा कि बीजिंग, हांगकांग या चीन सरकार का विदेशो में स्थित कोई कार्यालय वार्ता का स्थान हो सकता है। वर्तमान तिब्बती प्रतिनिधिमंडल उसको स्वीकार्य नहीं हो सकते क्योंकि इसके सभी सदस्य विभाजनकारी गतिविधियों’ में सम्मिलित रहे हैं। तिब्बती समूह में कोई भी विदेशी शामिल नहीं होगा और वह (चीनी सरकार) परमपावन दलाई लामा या उनके विश्र्वस्त प्रतिनिधि, जैसे ग्यालो थोण्डुप, से सीधे बातचीत के लिए इच्छुक हैं।
दिसम्बर १९८८
निर्वासित तिब्बत सरकार प्रतिनिधिमंडल में श्री ग्यालो थोण्डुप को शामिल करने पर सहमत हो गयी परन्तु अन्य शर्तों पर कायम रही।
अप्रैल १९८९
बीजिंग द्वारा रखे गये शर्तो पर आगे विचार विमर्च्च के लिये धर्मशाला से हांग-कांग मिच्चन भेजने का प्रस्ताव रखा गया। मिशन ने हांग-कांग को प्रारम्भकि बातचीत का स्थान रखना स्वीकार कर लिया लेकिन उसके जल्द बाद चीन ने वार्ता में कोई दिलचस्पी नही दिखायी।
अक्तूबर १९९१
परमपावन दलाई लामा ने बींजंग के लिये एक नया प्रस्ताव रखा। येल विश्र्वविद्यालय में अपने संबोधन में उन्होंने तिब्बत जाकर चीनी उच्च अधिकारियों के साथ वहां की वास्तविक स्थिति का मूल्याकंन करने की इच्छा जतायी।
दिसम्बर १९९१
परमपावन दलाई लामा ने चीनी राष्ट्रपति ली पेंग के अगामी दिल्ली दौरे के अवसर पर उनसे मिलने की इच्छा जतायी।
जनवरी १९९२
दलाई लामा जी के प्रस्ताव पर बींजिंग द्वारा लगातार सकारात्मक प्रतिक्रिया देने से इन्कार करने पर निर्वासित तिब्बती संसद में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि जबतक चीनी नेतृत्व के रुख में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं होता है तब तक वार्ता के लिये कोई नई पहल नहीं शुरू करनी चाहिये।
अप्रैल १९९२
नई दिल्ली स्थित चीनी दूतावास ने ग्यालो थोण्डुप को वार्ता के लिए चीन आने का निमंत्रण दिया। चीनी दूतावास से कहा गया कि पहले चीन सरकार का रूख कड़ा था लेकिन अगर तिब्बती वास्तविकता अपनाने के लिये तैयार हैं तब वे लोग भी लचीला रूख अपनाने को तैयार हैं॥
जून १९९२
थोण्डुप दलाई लामा जी की अनुमति प्राप्त कर चीन गये लेकिन चीनी नेतृत्व ने तिब्बत के प्रति वही पुराना कठोर रुख दुहराया तथा दलाई लामा जी के विरूद्ध गंभीर आरोप भी लगाए।
जून १९९३
श्री थोण्डुप के साथ वार्ता के दौरान चीनी नेतृत्व द्वारा उठायी गयी गलतफहमियों को दूर करने के लिये धर्मच्चाला से दो-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल चीन गया। यह प्रतिनिधिमंडल परमपावन दलाई लामा जी की ओर से श्री देंग शिओपिंग असंयुक्त राष्ट्र महासभा और जियांग जेमिन को संबोधित १३ सूत्रीय ज्ञापन भी ले गया। ज्ञापन में दलाई लामा जी ने शातिपूर्ण वार्ता के रास्ते तिब्बत समस्या के समाधान के लिए किये गये अपने प्रयासों का सिलसिलेवार विवरण प्रस्तुत करते हुये कहा कि यदि हम तिब्बती अपने मौलिक अधिकारों को अपनी संतुष्टि के अनुसार प्राप्त कर लेते हैं तो हम चीनियों के साथ रहने के संभव फायदों को समझने में अक्षम नहीं होंगे। इसी वर्ष चीन ने धर्मच्चाला के साथ संचार के सभी औपचारिक रास्ते बंद कर दिये। अनौपचारिक एंव अर्द्ध-शासकीय माध्यम निरंतर खुले रहे।
जून १९९८
बीजिंग में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति श्री बिल क्लिंटन के साथ संयुक्त प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुये चीनी राष्ट्रपति जियांग ज+ेमिन ने कहा कि यदि दलाई लामा सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करते हैं कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग हैं और ताईवान को चीन के क्षेत्र के रूप में मान्यता देते हैं, तब वह तिब्बतियों के साथ वार्ता के लिये इच्छुक होंगें।
मार्च १९९९
१० मार्च को तिब्बत जनक्रांति दिवस के वार्षिक वक्तव्य में परमपावन दलाई लामा ने घोषणा की कि चीन ने उनके साथ वार्ता करने के लिये अपने रुख को कड़ा कर दिया है।
सितम्बर २००२
श्री लोडी ग्यालत्सेन ग्यारी और केलसांग ग्यालत्सेन के नेतृत्व में चार-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल फिर से संबंध स्थपित करने के लिये चीन और तिब्बत गया। धर्मशाला ने चीनी सरकार के सकारात्मक रुख का स्वागत किया।
मई २००३
श्री लोडी ग्यालत्सेन ग्यारी और केलसांग ग्यालत्सेन के नेतृत्व में दूसरी बार प्रतिनिधिमंडल चीन और तिब्बत गया।